________________
( ११० ) .योदश-प्रतानां स्वप्रतिपक्षाभिलाषिणाम् । त्रयोदशातिचारास्ते शुद्धयन्ति स्वान्तनिग्रहात् ॥ ११ ॥ त्रयोदश-व्रतानां तु क्रियाऽऽलस्यं प्रकुर्वतः । त्रयोदशातिचाराः स्युस्तत्त्यागान्निर्मलो गृही ॥ १२ ॥ त्रयोदश-व्रतानां तु छन्नं भंग वितन्वतः । त्रयोदशातिचाराः स्युः शुद्धयन्ते योगदण्डनात् ।। १३ ॥ त्रयोदश-व्रतानां तु साभोग-व्रतभंजनात् ।
त्रयोदशातिचाराः स्युश्छन्नं शुद्धयधिकान्नयात् ॥ १४ ॥ अर्थात् उक्त तेरह व्रतोंमें मानस-शुद्धिकी हानिरूप अतिकमसे जो तेरह अतिचार लगते हैं, वे अपनी निन्दासे दूर हो जाते हैं । तेरह व्रतोंके स्व-प्रतिपक्षरूप विषयोंकी अभिलाषासे जो व्यतिकम-जनित तेरह अतिचार लगते हैं, वे मनके निग्रह करनेसे शुद्ध हो जाते हैं। तेरह व्रतोंके आचरण रूप क्रियामें आलस्य करनेसे तेरह अतिचार लगते हैं, उनके त्याग करनेसे गृहस्थ निर्मल या शुद्ध हो जाता है। तेरह व्रतोंके अनाचार रूप छन्न भंगको करनेसे जो तेरह अतिचार लगते हैं, वे मन-वचन-काय रूप तीनों योगोंके निग्रहसे शुद्ध हो जाते हैं। तेरह व्रतोंके आभोगजनित व्रत-भंगसे जो तेरह अतिचार उत्पन्न होते हैं, वे प्रायश्चित्त-वर्णित नय-मार्गसे शुद्ध होते हैं ॥ १०-१४ ।।
इस विवेचनसे सिद्ध है कि प्रत्येक व्रतके पाँच-पाँच अतिचारोंमेंसे एक-एक अतिचार अतिकम-जनित है, एक-एक व्यतिक्रम-जनित हैं, एक-एक अतिचार-जनित है, एक-एक अनाचारजनित है और एक-एक आभोग-जनित है। उक्त सन्दर्भसे दूसरी बात यह भी प्रकट होती है कि प्रत्येक अतिचारकी शुद्धिका प्रकार भी भिन्न-भिन्न ही है। इससे यह निष्कर्ष निकला कि यतः व्रत-भंगके प्रकार पाँच हैं, अतः तज्जनित दोष या अतिचार भी पाँच ही हो सकते हैं।
प्रायश्चित्तचूलिकाके टीकाकारने भी उक्त प्रकारसे ही व्रत-सम्बन्धी दोषोंके पाँच-पाँच भेद किये हैं। यथा
'सर्वेऽपि व्रत-दोषाः पंचषष्टिभेदा भवंति। तद्यथा-अतिक्रमो व्यतिकमोऽतिचारोऽनाचार आभोग इति । एषामर्थश्चायमभिधीयते-जरद्-गवन्यायेन । यथा-कश्चिद् जरद्-गवः महाशस्यसमृद्धि-सम्पन्नं क्षेत्रं समवलोक्य तत्सीम-समीप-प्रदेशे समवस्थितस्तत्प्रति स्पृहां संविधत्ते सोऽतिकमः । पुनर्विवरोदरान्तरास्यं संप्रवेश्य ग्रासमेकं समाददामीत्यभिलाषकालुष्यमस्य व्यतिकमः। पुनरपि तद्-वृत्ति-समुल्लंघनमस्यातिचारः । पुनरपि क्षेत्रमध्यमधिगम्य ग्राममेकं समादाय पुनरस्यापसरणमनाचारः । भूयोऽपि निःशंकितः क्षेत्रमध्यं प्रविश्य यथेष्टं संभक्षणं क्षेत्रप्रभुणा प्रचण्डदण्डताडनखलीकारः आभोगकारः आभोग इति । एवं व्रतादिष्वपि योज्यम् ।
-प्रायश्चित्तचूलिका० श्लो० १४६ टीका भावार्थ-प्रत्येक व्रतके दोष अतिकम आदिके भेदसे पांच प्रकारके होते हैं। इन पांचोंका अर्थ एक बूढे बेलसे दृष्टान्त-द्वारा स्पष्ट किया गया है। कोई बूढा बैल धान्यके हरे-भरे किसी खेत को देखकर उसकी बाढ़के समीप बैठा हुआ उसे खानेकी मनमें इच्छा करता है, यह अतिकम दोष है। पुनः वह बैठा-बैठा ही बाढ़के किसी छिद्रसे भीतर मुख डालकर एक ग्रास धान्य खानेकी अभिलाषा करे तो यह व्यतिक्रम दोष है । अपने स्थानसे उठकर और खेतकी बाढ़को तोड़कर भीतर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org