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( १०८ ) उन्हें मूलव्रत या मूलगुणके नामसे भी कहा जाता है। मूलव्रतों या मूलगुणोंको रक्षाके लिए जो अन्य व्रतादि धारण किये जाते हैं, उन्हें उत्तर गुण कहा जाता है । इस व्यवस्थाके अनुसार मूलमें श्रावकके पांच मूल गुण और सात उत्तर गुण बताये गये हैं। कुछ आचार्योने उत्तर गुणोंकी 'शीलव्रत' संज्ञा भी दी है। कालान्तरमें श्रावकके मूलगुणोंकी संख्या पाँचसे बढ़कर आठ हो गई, अर्थात् पाँचों पापोंके त्यागके साथ मद्य, मांस और मधु इन तीन मकारोंके सेवनका त्याग करनेको आठ मूलगुण माना जाने लगा। तत्पश्चात् पाँच पापोंका स्थान पाँच उदुम्बर फलोंने ले लिया और एक नये प्रकारके आठ मूलगुण माने जाने लगे। इस प्रकार पांचों अणुव्रतोंकी गणना उत्तर गुणोंमें की जाने लगी और सातके स्थान पर बारह उत्तर गुण या उत्तर व्रत श्रावकोंके माने जाने लगे। किन्तु यह परिवर्तन श्वेताम्बर परम्परामें दृष्टिगोचर नहीं होता।
____ साधुओंके पाँचों पापोंका सर्वथा त्याग नव कोटिसे अर्थात् मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनासे होता है अतएव उनके व्रतोंमें किसी प्रकारके अतिचारके लिए स्थान नहीं रहता है। पर श्रावकोंके प्रथम तो सर्व पापोंका सर्वथा त्याग संभव ही नहीं है। दूसरे हर एक व्यक्ति नव कोटिसे स्थूल भी पापोंका त्याग नहीं कर सकता है। तीसरे प्रत्येक व्यक्तिके चारों
ओरका वातावरण भी भिन्न-भिन्न प्रकारका रहता है। इन सब बाह्य कारणोंसे तथा प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन और नोकषायोंके तीव्र उदयसे उसके व्रतोंमें कुछ न कुछ दोष लगता रहता है । अतएव व्रतकी अपेक्षा रखते हुए भी प्रमादादि, तथा बाह्य परिस्थिति-जनित कारणोंसे गृहीत व्रतोंमें दोष लगनेका, व्रतके आंशिक रूपसे खण्डित होनेका और स्वीकृत व्रतकी मर्यादाके उल्लंघनका नाम ही शास्त्रकारोंने 'अतिचार' रखा है । यथा
'सापेक्षस्य व्रते हि स्यादतिचारोंऽशभंजनम् । (सागारधर्मामृत अ० ४ श्लोक १८)
सम्यग्दर्शन, बारह व्रत और समाधिमरण या सल्लेखनाके अतिचारोंका स्वरूप प्रस्तुत संग्रहमें संकलित अनेक श्रावकाचारोंमें किया गया है । अतः उनका स्वरूप न लिखकर उनके पाँचपाँच भेद रूप संख्याके आधारसे उनकी विशेषताका विचार किया जाता है।
जब अप्रत्याख्यानावरण कषायका तीव्र उदय होता है, तो व्रत जड़-मूलसे ही खण्डित हो जाता है। उसके लिए आचार्योंने 'अनाचार' नामका प्रयोग किया है। यदि किसी व्रतके लिए १०० अंक मान लिए जावें, तो एकसे लेकर ९९ अंक तकका व्रत-खण्डन अतिचारकी सीमाके भीतर आता है। क्योंकि व्रत-धारककी एक प्रतिशत अपेक्षा व्रत-धारणमें बनी हुई है। यदि वह एक प्रतिशत व्रत-सापेक्षता भी न रहे और व्रत शत-प्रतिशत खण्डित हो जावे, तो उसे अनाचार कहते हैं। अनेक आचार्योंने इस दृष्टिको लक्ष्यमें रख करके अतिचारोंकी व्याख्या की है। किन्तु कुछ आचार्योन अतिचार और अनाचार इन दोके स्थानपर अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार ऐसे चार विभाग किये हैं। उन्होंने मनके भीतर व्रत-सम्बन्धी शुद्धिकी हानिको अतिक्रम, व्रतकी रक्षा करनेवाली शील-बाढ़के उल्लंघनको व्यतिक्रम, विषयों में प्रवृत्ति करनेको अतिचार और विषय-सेवनमें अति आसक्तिको अनाचार कहा है । जैसा कि आ० अमितगतिने कहा है
क्षतिं मनःशुद्धिविधेरतिक्रमं व्यतिक्रमं शीलवृतेविलंघनम् । प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम् ॥
—सामायिक पाठ श्लोक ९
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