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(११) सकलकीत्तिने आठवीं प्रतिमाधारीको रथादि सवारीके त्यागका विधान किया है। ( देखो-भाग २, पृ० ४१८, श्लोक १०७ )
(१२) लाटीसंहितामें छठी प्रतिमाधारीके लिए रोगादिके शमनार्थ रात्रिमें गन्ध-माल्य, विलेपन एवं तैलाभ्यङ्ग आदिका भी निषेध किया है । ( देखो-भाग ३, पृ० १४३, श्लोक २०)
(१३) पं० दौलतरामजीने छठी प्रतिमाधारीके लिए रात्रिमें गमनागमनका निषेध किया है, तथा अन्य आरम्भ कार्योंके करनेका भी निषेध किया है । ( देखो-भाग ५, पृ० ३७२, ३७३ )
(१४) लाटीसंहितामें दूसरी प्रतिमाधारीके लिए रात्रिमें लम्बी दूर जाने-आनेका निषेध किया गया है । ( देखो-भाग ३, पृ० १०४, श्लोक २२३ )
तथा इसी व्रत-प्रतिमावालेको घोड़े आदिकी सवारी करके दिनमें भी गमन करनेका निषेध किया है, उनका तर्क है कि किसी सवारीपर चढ़कर जानेमें ईर्यासंशुद्धि कैसे संभव है। (देखोभाग ३, पृ० १०४, श्लोक २२४ )
(१५) पुरुषार्थानुशासनमें श्रावक-प्रतिमाओंको क्रमसे तथा क्रमके बिना भी धारण करनेका विधान किया है । ( देखो-भाग ३, पृ० ५३१, श्लोक ९४ ) जबकि सभी श्रावकाचारमें क्रमसे ही प्रतिमाओंके धारण करनेका स्पष्ट विधान किया गया है ।
(१६) धर्मसंग्रह श्रावकाचारमें प्रथमोत्कृष्टसे 'श्वेतैकपटकौपीनधारक' कहा है। ( देखोभाग २, पृ० १४९, श्लोक ६१ ) सागारधर्मामृतमें भी 'सितकौपीनसंव्यानः' कहा है । ( देखोभाग २, पृ०७४, श्लोक ३८ ) तथा द्वितीयोत्कृष्टको ‘रक्तकौपीनसंग्राही' कहा है। ( देखोभाग २, पृ० १५०, श्लोक ७२)
श्रावककी ११ प्रतिमाओंके विषयमें यह विशेष ज्ञातव्य है कि उमास्वातिने अपने तत्त्वार्थसूत्रमें, तथा उसके टीकाकार पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्दिने प्रतिमाओंका कोई उल्लेख नहीं किया है। इसी प्रकार शिवकोटिने रत्नमालामें, रविषेणने पद्मचरितमें, जटासिंहनन्दिने वराङ्गचरितमें, जिनसेनने हरिवंशपुराणमें, पद्मनन्दिने पंचविंशतिकामें, देवसेनने प्राकृत भावसंग्रहमें और रयणसारके कर्त्ताने रयणसारमें तथा अमृतचन्द्रने पुरुषार्थसिद्धयुपायमें भी श्रावककी ११ प्रतिमाओंका कोई वर्णन नहीं किया है। इसके विपरीत समन्तभद्र, सोमदेव, अमितगति, वसुनन्दि, आशाधर, मेधावी, सकलकीति आदि श्रावकाचार-कर्ताओंने ग्यारह प्रतिमाओंका नाम निर्देश ही नहीं, प्रत्युत विस्तारके साथ उनके स्वरूपका निरूपण किया है।
आचार्य कुन्दकुन्दने ग्यारह प्रतिमाओंके नामवली जिस गाथाको कहा है, वही गाथा षट्खण्डागमकी धवला और कषायपाहुडको जयधवला टीकामें भी पायी जाती है।
उक्त विश्लेषणसे ज्ञात होता है कि श्रावकधर्मके वर्णन करनेके विषयमें दिगम्बर सम्प्रदायमें दो परम्पराएं रही हैं। इसी प्रकार श्वे० सम्प्रदायमें तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकारोंने भी प्रतिमाओंका कोई वर्णन नहीं किया है, परन्तु हरिभद्रकी उपासक-विंशतिकामें तथा दशाश्रुतस्कन्धमें प्रतिमाओंका वर्णन पाया जाता है, इससे यह निष्कर्ष निकल जाता है दि० श्वे० दोनों ही परम्पराओंमें प्रतिमाके वर्णन और नहीं वर्णन करनेकी दो परम्पराएं रही हैं।
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