________________
एक्कारसवि उवासगाणं लक्खणं तेसिं च वदारोवणविहाणं तेसिमाचरणं च वण्णेदि। (षट्खंडागम धवलाटीका भा० १ पृ० १०२)
२. उवासयज्झयणं णाम अंगं देसण-वय-सामाइय-पोसहोववास-सचित्त-रायिभत्त बंभारंभपरिग्गहाणुमणुद्दिट्टणामाणमेकारसण्हमुवासयाणं धम्ममेक्कारसविहं वण्णेदि (कसायपाहुड जयधवलाटीका भा० ९ पृ० १३०)
अर्थात् उपासकाध्ययननामा सातवाँ अंग, दर्शन, व्रत, सामायिक आदि ग्यारह प्रकारके उपासकोंका लक्षण, व्रतारोपण आदिका वर्णन करता है।
स्वामिकात्तिकेयके पश्चात् ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर श्रावक-धर्मका प्रतिपादन करनेवालोंमें आ० वसुनन्दि प्रमुख हैं।' इन्होंने अपने उपासकाध्ययनमें उसी परिपाटीका अनुसरण किया है, जिसे कि आ० कुन्दकुन्द और स्वामिकात्तिकेयने अपनाया है।
__ स्वामिकात्तिकेयने सम्यक्त्वकी विस्तृत महिमाके पश्चात् ग्यारह प्रतिमाओंके आधार पर बारह व्रतोंका स्वरूप निरूपण किया है। पर वसुनन्दिने प्रारम्भमें सात व्यसनोंका और उनके दुष्फलोंका खूब विस्तारसे वर्णन कर मध्यमें बारह व्रत और ग्यारह प्रतिमाओंका, तथा अन्तमें विनय, वेयावृत्त्य, पूजा, प्रतिष्ठा और दानका वर्णन भी विस्तारसे किया है। इस प्रकार प्रथम प्रकार प्रतिपादन करनेवालोंमें तदनुसार श्रावक धर्मका प्रतिपादन क्रमसे विकसित होता हुआ दृष्टिगोचर होता है।
(२) द्वितीय प्रकार अर्थात् बारह व्रतोंको आधार बनाकर श्रावकधर्मका प्रतिपादन करनेवाले आचार्योंमें उमास्वाति और समन्तभद्र प्रधान हैं। आ० उमास्वातिने अपने तत्त्वार्थसूत्रके सातवें अध्यायमें श्रावक-धर्मका वर्णन किया है। इन्होंने व्रतीके आगारी और अनगारी भेद करके अणुव्रतधारीको आगारी बताया और उसे तीन गुणवत, चार शिक्षाव्रत रूप सप्त शीलसे सम्पन्न कहा । आ० उमास्वातिने ही सर्वप्रथम बारह व्रतोंके पाँच-पाँच अतीचारोंका वर्णन किया है। तत्त्वार्थसूत्रकारने अतीचारोंका यह वर्णन कहाँसे किया, यह एक विचारणीय प्रश्न है। इसके निर्णयार्थ जब हम वर्तमानमें उपलब्ध समस्त दि० श्वे. जैन वाङ्मयका अवगाहन करते हैं, तब हमारी दृष्टि उपासकदशा सूत्र पर अटकती है । यद्यपि वर्तमानमें उपलब्ध यह सूत्र तीसरी वाचनाके बाद लिपि-बद्ध हुआ है, तथापि उसका आदि स्रोत तो श्वे. मान्यताके अनुसार भ० महावीरकी वाणीसे ही माना जाता है। जो हो, चाहे अतीचारोंके विषयमें तत्त्वार्थसूत्रकारने उपासकदशासूत्रका अनुसरण किया हो और चाहे उपासकदशासूत्रकारने तत्त्वार्थसूत्रका, पर इतना निश्चित है कि दि० परम्परामें तत्त्वार्थसूत्रसे पूर्व अतीचारोंका वर्णन किसीने नहीं किया।
तत्त्वार्थसूत्र और उपासकदशासूत्रमें एक समता और पाई जाती है और वह है मूलगुणोंके न वर्णन करनेकी। दोनों ही सूत्रकारोंने आठ मूलगुणोंका कोई वर्णन नहीं किया है। यदि कहा जाय कि तत्त्वार्थसूत्रकी संक्षिप्त रचना होनेसे अष्टमूलगुणोंका वर्णन न किया गया होगा, सो माना
१. यद्यपि अमिगतिने भी ११ प्रतिमाओंका वर्णन किया है, पर श्रावकके व्रतोंके वर्णनके पश्चात् किया है।
११ प्रतिमाओंके आधार पर नहीं किया है । -सम्पादक २. देखो तत्त्वार्ष० अ० ७, सू० १८-२१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org