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( ७२ ) २. स्वप्नमें भी मेरे मांस-भक्षणके भाव न हों। ३. रवप्नमें भी मेरे मदिरा आदि नशीली वस्तुओंके सेवनके भाव न हों। ४. रोगादिकी प्रबलतामें भी मधुके साथ औषधि सेवनके भाव न हों।
५. बड़, पीपल, अंजीर आदि त्रस जीव-व्याप्त किसी भी प्रकारके गीले या सूखे फलादि खानेके भाव न हों।
६. स्वप्नमें भो कभी किसी प्राणीके घात करनेके भाव न हों, किन्तु सदा जीवोंकी रक्षाके भाव बढ़ते रहें।
जिस प्रकार मिथ्यात्व और पाप कर्मोसे बचनेके लिए उक्त भावनाएँ करनी आवश्यक हैं, उसी प्रकार आत्मविशुद्धिकी वृद्धिके लिए निम्न भावनाएं भी करनी चाहिए
१. संसारके समस्त प्राणियोंके साथ मेरा सदा मैत्री भाव बना रहे। २ गुणी जनोंमें मेरा प्रमोद भाव सदा बढ़ता रहे। ३. दुखी एवं विपद्-ग्रस्त जीवोंपर मेरी करुणा सदा जागृत रहे। ४. मेरे शत्रुओंपर भी क्षोभ न आवे, किन्तु मध्यस्थ भाव रहे।
प्रत्येक जैन या पाक्षिक श्रावकको प्रतिदिन प्रातः और सायंकाल बैठकर उक्त भावनाएँ करनी आवश्यक हैं। इनके करनेसे व्यक्तिका उत्तरोत्तर विकास होगा। इस विषयमें श्री सोमदेव सूरिने बहुत उत्तम बात कही है
अल्पात् क्लेशात्सुखं सुष्ठु स्वात्मनः यदि वाञ्छति । आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥
( भा० १, पृ० १४७ श्लोक २६७ ) अर्थात् मनुष्य यदि अल्प ही कष्ट उठाकर अपने लिए उत्तम सुख चाहता है तो उसे चाहिए कि वह अपने लिए प्रतिकूल कर्मोको दूसरेके साथ न करे।
८. श्रावकाचारोंके वर्णन पर एक विहंगम दृष्टि स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्डकका अनुसरण प्रायः परवर्ती सभी श्रावकाचार-रचयिताओंने किया है, फिर भी वसुनन्दी आदि कुछ आचार्योंने उसका अनुसरण न करके मूलगुण, अतीचार आदिका भी वर्णन न करके स्वतंत्र शैलीमें वर्णन क्यों किया ? इस पर विचार किया जाता है
___प्रस्तावनाके प्रारंभमें श्रावक धर्मके जिन तीन प्रतिपादन-प्रकारोंका उल्लेख किया गया है, संभवतः वसुनन्दिको उनमेंसे प्रथम प्रकार ही प्राचीन प्रतीत हुआ और उन्होंने उसीका अनुसरण किया हो । अतः उनके द्वारा श्रावकधर्मका प्रतिपादन प्राचीन पद्धतिसे किया गया जानना चाहिए। आ० वसुनन्दिने स्वयं अपनेको कुन्दकुन्दाचार्यकी परम्पराका अनुयायी बताया है । अतएव इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं जो इसी कारणसे उन्होंने कुन्दकुन्द-प्रतिपादित ग्यारह प्रतिमारूप सरणिका अनुसरण किया हो। इसके अतिरिक्त वसुनन्दिने आ० कुन्दकुन्दके समान ही सल्लेखनाको चतुर्थ शिक्षाव्रत माना है जो कि उक्त कथनकी पुष्टि करता है । दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि वसुनन्दिने जिस उपासकाध्ययन का बार-बार उल्लेख किया है, संभव है उसमें श्रावक धर्मका प्रतिपादन ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर ही किया गया हो और इसी कारण उन्होंने
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