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प्रसिद्ध और अनेक आचार्योंसे सम्मत छठी प्रतिमाका धारी बन जाता है । इस प्रतिमाधारीके लिए दिवा-मैथुन त्याग और रात्रि-भुक्ति त्याग ये दोनों कार्य एक साथ आवश्यक हैं, इस बातकी पुष्टि दोनों परम्पराओंके शास्त्रोंसे होती है। इस प्रकार छठी प्रतिमाका आधार रात्रिभुक्ति-परित्यागकी अपेक्षा भोगविरति और दिवा-मैथुन-परित्यागकी अपेक्षा उपभोगविरति ये दोनों ही शिक्षावत सिद्ध होते हैं।
सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा है । छठी प्रतिमामें स्त्रीका परित्याग वह दिनमें कर चुका है, अब वह स्त्रीके अंगको मलयोनि, मलबीज, गलन्मल और पूतगन्धि आदिके स्वरूपमें देखता हुआ रात्रिको भी उनके सेवनका सर्वथा परित्यागकर पूर्ण ब्रह्मचारी बन जाता है, और इस प्रकार उपभोगपरिमाण नामक शिक्षाव्रतको एक कदम और भी ऊपर बढ़ाता है।
उपर्युक्त विवेचनके अनुसार पाँचवीं, छठी और सातवीं प्रतिमामें श्रावकने भोग और उपभोगके प्रधान साधन सचित्त भोजन और स्त्रीका सर्वथा परित्याग कर दिया है। पर अभी वह भोग और उपभोगकी अन्य वस्तुएँ महल-मकान, बाग-बगीचे और सवारी आदिका उपभोग करता था । इनसे भी विरक्त होनेके लिए वह विचारता है कि मेरे पास इतना धन-वैभव है, और मैंने स्त्री तकका परित्याग कर दिया है। अब 'स्त्रीनिरीहे कुतः धनस्पृहा' की नीतिके अनुसार स्त्रीसेवनका त्याग करनेपर मुझे नवीन धनके उपार्जनकी क्या आवश्यकता है ? बस, इस भावनाकी प्रबलताके कारण वह असि, मषि, कृषि, वाणिज्य आदि सर्व प्रकारके आरम्भोंका परित्याग कर आरम्भत्याग नामक आठवीं प्रतिमाका धारी बन जाता है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि इस प्रतिमामें व्यापारादि आरम्भोंके स्वयं न करनेका ही त्याग होता है, अतः पुत्र, भृत्य आदि जो पूर्वसे व्यापारादि कार्य करते चले आ रहे हैं, उनके द्वारा वह यतः करानेका त्यागी नहीं है, अतः कराता रहता है। इस बातकी पुष्टि प्रथम तो श्वे० आगमोंमें वर्णित नवमी प्रतिमाके 'पेसपरिन्नाए' नामसे होती है. जिसका अर्थ है कि वह नवमी प्रतिमामें आकर प्रेष्य अर्थात भत्यादि वर्गसे भी आरम्भ न करानेकी प्रतिज्ञा कर लेता है । दूसरे, दशवी प्रतिमाका नाम अनुमति त्याग है। इस प्रतिमाका धारी आरम्भादिके विषयमें अनुमोदनाका भी परित्याग कर देता है। यह अनुमति पद अन्त दीपक है, जिसका यह अर्थ होता है कि दशवी प्रतिमाके पूर्व वह नवमी प्रतिमामें आरम्भादिका कारितसे त्यागी हुआ है, और उसके पूर्व आठवीं प्रतिमामें कृतसे त्यागी हुआ है, यह बात बिना कहे ही स्वतः सिद्ध हो जाती है।
उक्त विवेचनसे यह निष्कर्ष निकला कि श्रावक भोग-उपभोगके साधक आरम्भका कृतसे त्यागकर आठवीं प्रतिमाका धारी, कारितसे भी त्याग करनेपर नवमी प्रतिमाका धारी और अनुमतिसे भी त्याग करनेपर दशवी प्रतिमाका धारी बन जाता है। पर स्वामिकात्तिकेय अष्टम
माधारीके लिए कृत. कारित और अनमोदनासे आरम्भका त्याग आवश्यक बतलाते हैं। यहां इतनी बात विशेष ज्ञातव्य है कि ज्यों-ज्यों श्रावक ऊपर चढ़ता जाता है, त्यों-त्यों अपने बाह्य परिग्रहोंको भी घटाता जाता है। आठवीं प्रतिमामें जब उसने नवीन धन उपार्जनका त्याग कर
ससे एक सीढी ऊपर चढते ही संचित धन, धान्यादि बाह्य दशों प्रकारके परिग्रहसे भी ममत्व छोड़कर उनका परित्याग करता है, केवल वस्त्रादि अत्यन्त आवश्यक पदार्थोंको रखता है और इस प्रकार वह परिग्रह-त्याग नामक नवमी प्रतिमाका धारी बन जाता है। यह सन्तोषकी परम मूर्ति, निर्ममत्वमें रत और परिग्रहसे विरत हो जाता है।
प्रतिम
दिया
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