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प्रतिपादनार्थ उन्होंने 'तं भोयविरइ भणियं पढमं सिक्खावयं सुत्ते' (गाथा २१७) वाक्य कहा है। यहाँ सूत्र पदसे वसुनन्दिका किस सूत्रकी ओर संकेत रहा है, यद्यपि यह अद्यावधि विचारणीय है, तथापि उनके उक्त निर्देशसे उक्त दोनों शिक्षाव्रतोंका पृथक् प्रतिपादन असंदिग्ध रूपसे प्रमाणित है।
(३) आचार्य वसुनन्दि द्वारा सल्लेखनाको शिक्षाव्रत प्रतिपादन करनेके विषयमें भी यही बात है। प्रथम आधार तो उनके पास श्रावक-प्रतिक्रमणसूत्रका था ही। फिर उन्हें इस विषयमें आचार्य कुन्दकुन्द और देवसेन जैसोंका समर्थन भी प्राप्त था । अतः उन्होंने सल्लेखनाको शिक्षाव्रतोंमें गिनाया।
उमास्वाति, समन्तभद्र आदि अनेकों आचार्योंके द्वारा सल्लेखनाको मारणान्तिक कर्त्तव्यके रूपमें पृथक् प्रतिपादन करनेपर भी वसुनन्दिके द्वारा उसे शिक्षाव्रतमें गिनाया जाना उनके ताकिक होनेकी बजाय सैद्धान्तिक होनेकी ही पुष्टि करता है। यही कारण है कि परवर्ती विद्वानोंने अपने ग्रन्थोंमें उन्हें उक्त पदसे संबोधित किया है।
(४) आचार्य कुन्दकुन्द, स्वामो कार्तिकेय और समन्तभद्र आदिने छठी प्रतिमाका नाम 'रात्रिभक्तित्याग' रखा है। और तदनसार ही उस प्रतिमामें चतविध रात्रि
त्रिभोजनका परित्याग आवश्यक बताया है। आचार्य वसनन्दिने भी ग्रन्थके आरम्भमें गाथा नं०४ के द्वारा इस प्रतिमाका नाम तो वही दिया है पर उसका स्वरूप-वर्णन दिवामथुनत्याग रूपसे किया है। तब क्या यह पूर्वापर विरोध या पर्व-परम्पराका उल्लंघन है? इस आशंकाका समाधान हमें वसन प्रतिपादन-शैलीसे मिल जाता है। वे कहते हैं कि रात्रि-भोजन करनेवाले मनुष्यके तो पहिली प्रतिमा भी संभव नहीं है, क्योंकि रात्रिमें खानेसे अपरिमित त्रस जीवोंकी हिंसा होती है। अतः अर्हन्मतानुयायीको सर्वप्रथम मन, वचन, कायसे रात्रि-भुक्तिका परिहार करना चाहिए। (देखो गाथा नं० ३१४-३१८)। ऐसी दशामें पाँचवीं प्रतिमा तक श्रावक रात्रिमें भोजन कैसे कर सकता है ? अतएव उन्होंने दिवामैथुन त्याग रूपसे छठी प्रतिमाका वर्णन किया। इस प्रकारसे वर्णन करनेपर भी वे पूर्वापर-विरोध रूप दोषके भागी नहीं हैं, क्योंकि 'भुज' धातुके भोजन और सेवन ऐसे दो अर्थ संस्कृत-प्राकृत साहित्यमें प्रसिद्ध हैं। समन्तभद्र आदि आचार्योंने 'भोजन' अर्थका आश्रय लेकर छठी प्रतिमाका स्वरूप कहा है और वसुनन्दिने 'सेवन' अर्थको लेकर ।
__ आचार्य वसुनन्दि तक छठी प्रतिमाका वर्णन दोनों प्रकारोंसे मिलता है। वसुनन्दिके पश्चात् पं० आशाधरजी आदि परवर्ती दि० और श्वे० विद्वानोंने उक्त दोनों परम्पराओंसे आनेवाले और भुज् धातुके द्वारा प्रकट होनेवाले दोनों अर्थोंके समन्वयका प्रयत्न किया है और तदनुसार छठी प्रतिमामें दिनको स्त्री-सेवनका त्याग तथा रात्रिमें सर्व प्रकारके आहारका त्याग आवश्यक बताया है।
(५) आचार्य वसुनन्दिके उपासकाध्ययनकी एक बहुत बड़ी विशेषता ग्यारहवीं प्रतिमाधारी प्रथमोत्कृष्ट श्रावकके लिए भिक्षा-पात्र लेकर, अनेक घरोंसे भिक्षा मांगकर और एक ठौर बैठकर खानेके विधान करनेकी है। दि० परम्परामें इस प्रकारका वर्णन करते हुए हम सर्वप्रथम आचार्य वसुनन्दिको ही पाते हैं। सैद्धान्तिक-पद-विभूषित आचार्य वसुनन्दिने प्रथमोत्कृष्ट श्रावकका जो इतना विस्तृत और स्पष्ट वर्णन किया है वह इस बातको सूचित करता है कि उनके सामने इस विषयके प्रबल आधार अवश्य रहे होंगे। अन्यथा उन जैसा सैद्धान्तिक विद्वान् पात्र रखकर और पाँच-सात घरसे भिक्षा मांगकर खानेका स्पष्ट विधान नहीं कर सकता था।
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