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( ८२ ) शिक्षावतोंका उद्देश्य-जिन व्रतोंके पालन करनेसे मुनिव्रत धारण करनेकी, या मुनि बनने की शिक्षा मिलती है, उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं। स्वामी समन्तभद्रने प्रत्येक शिक्षाव्रतका स्वरूप वर्णन करके उसके अन्तमें बताया है कि किस प्रकार इससे मुनि समान बननेकी शिक्षा मिलती है और किस प्रकार गृहस्थ उस व्रतके प्रभावसे 'चेलोपसृष्टमुनिरिव' यति-भावको प्राप्त होता है।'
गृहस्थका जीवन उस व्यापारीके समान है, जो किसी बड़े नगरमें व्यापारिक वस्तुएँ खरीदनेको गया। दिन भर उन्हें खरीदनेके पश्चात् शामको जब घर चलनेकी तैयारी करता है तो एक बार जिस क्रमसे वस्तु खरीद की थी, बीजक हाथमें लेकर तदनुसार उसकी सम्भाल करता है और अन्तमें सबकी सम्भालकर अपने अभीष्ट ग्रामको प्रयाण कर देता है। ठीक यही दशा गृहस्थ श्रावक की है। उसने इस मनुष्य पर्यायरूप व्रतोंके व्यापारिक केन्द्रमें आकर बारह व्रतरूप देशसंयम-सामग्रीकी खरीद की। जब वह अपने अभीष्ट स्थानको प्रयाण करनेके लिए समुद्यत हुआ, तो जिस क्रमसे उसने जो व्रत धारण किया है उसे सम्भालता हुआ आगे बढ़ता जाता है और अन्तमें सबकी सम्भालकर अपने अभीष्ट स्थानको प्रयाण कर देता है।
श्रावकने सर्वप्रथम सम्यग्दर्शनको धारण किया था, पर वह श्रावकका कोई व्रत न होकर उसकी मूल या नींव है। उस सम्यग्दर्शन मूल या नींवके ऊपर देशसंयम रूप भवन खड़ा करनेके लिए भूमिका या कुरसीके रूपमें अष्ट मूलगुणोंको धारण किया था और साथ ही सप्त व्यसनका परित्याग भी किया था। संन्यास या साधुत्वकी ओर प्रयाण करनेके अभिमुख श्रावक सर्वप्रथम अपने सम्यक्त्वरूप मूलको और उसपर रखी अष्टमूलगुणरूप भूमिकाको सम्भालता है। श्रावकके इस निरतिचार या निर्दोष सम्भालको ही दर्शन-प्रतिमा कहते हैं।
इसके पश्चात् उसने स्थूल वधादि रूप जिन महापापोंका त्यागकर अणुव्रत धारण किये थे, उनके निरतिचारिताकी सम्भाल करता है और इस प्रतिमाका धारी बारह व्रतोंका पालन करते हुए भी अपने पाँचों अणुव्रतोंमें और उनकी रक्षाके लिए बाढ़ स्वरूपसे धारण किये गये तीन गुणवतोंमें कोई भी अतीचार नहीं लगने देता और उन्हींकी निरतिचार परिपूर्णताका उत्तरदायी है। शेष चारों शिक्षाव्रतोंका वह यथाशक्ति अभ्यास करते हुए भी उनकी निरतिचार परिपालनाके लिए उत्तरदायी नहीं है । इस प्रतिमाको धारण करनेके पूर्व ही तीन शल्योंका दूर करना अत्यन्त आवश्यक है।
तीसरी सामायिक प्रतिमा है, जिसमें कि सामायिक नामक प्रथम शिक्षाव्रतकी परिपूर्णता, त्रैकालिक साधना और निरतिचार परिपालना अत्यावश्यक है। दूसरी प्रतिमामें सामायिक शिक्षाव्रत अभ्यास दशामें था, अतः वहाँपर दो या तीन बार करनेका कोई बन्धन नहीं था, वह इतने ही कालतक सामायिक करे, इस प्रकार कालकृत नियम भी शिथिल था। पर तीसरी प्रतिमामें सामायिकका तीनों संध्याओंमें किया जाना आवश्यक है और वह भी एक बारमें कमसे कम दो घड़ी या एक मुहूर्त (४८ मिनिट) तक करना ही चाहिए। सामायिकका उत्कृष्ट काल छह घड़ीका है। साथ ही तीसरी प्रतिमा-धारीको 'यथाजात' रूप धारणकर सामायिक करनेका विधान समन्त
१. सामयिके सारम्भाः परिग्रहाः नैव सन्ति सर्वेऽपि ।
लोपसृष्टमुनिरिव गृही सदा याति यतिभावम् ॥ १.२॥-रत्नकरणक
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