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बताकर प्रकारान्तरसे उसके सेवनकी छूट दे देते हैं ।" क्या यह पूर्व गुणके विकासके स्थानपर उसका ह्रास नहीं है ? और इस प्रकार क्या वे स्वयं स्ववचन-विरोधी नहीं बन गये हैं ? वस्तुतः संगीत, नृत्यादिके देखनेका त्याग भोगोपभोगपरिमाण व्रतमें कराया गया है।
पं० आशाधरजी द्वारा इसी प्रकारकी एक और विचारणीय बात चोरी व्यसनके अतीचार कहते हुए कही गई है। प्रथम प्रतिमाधारीको तो वे अचौर्य व्यसनकी शुचिता ( पवित्रता या निर्मलता ) के लिए अपने सगे भाई आदि दायादारोंके भी भूमि, ग्राम, स्वर्ण आदि दायभागको राजवर्चस् ( राजाके तेज या आदेश ) से, या आजकी भाषामें कानूनकी आड़ लेकर लेनेकी मनाई करते हैं । परन्तु दूसरी प्रतिमाधारीको अचौर्याणुव्रतके अतीचारोंकी व्याख्यामें चोरोंको चोरी के लिए भेजने, चोरीके उपकरण देने और चोरीका माल लेनेपर भी व्रतकी सापेक्षता बताकर उन्हें अतीचार ही बतला रहे हैं ।
ये और इसी प्रकारके जो अन्य कुछ कथन पं० आशाधरजी द्वारा किये गये हैं, वे आज भी विद्वानोंके लिए रहस्य बने हुए हैं और इन्हीं कारणोंसे कितने ही लोग उनके ग्रंथोंके पठन-पाठनका विरोध करते रहे हैं । पं० आशाधर जैसे महान् विद्वान्के द्वारा ये व्युत्क्रम-कथन कैसे हुए, इस प्रश्नपर जब गम्भीरता से विचार करते हैं, तब ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने श्रावक-धर्मके निरूपणकी परम्परागत विभिन्न दो धाराओंक मूलमें निहित तत्त्वको दृष्टिमें न रखकर उनके समन्वयका प्रयास किया, और इसी कारण उनसे उक्त कुछ व्युत्क्रम-कथन हो गये । वस्तुतः ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर श्रावक-धर्मका प्रतिपादन करनेवाली परम्परासे बारह व्रतोंको आधार बनाकर श्रावक-धर्मका प्रतिपादन करनेवाली परम्परा बिलकुल भिन्न रही है । अतीचारोंका वर्णन प्रतिमाओंको आधार बनाकर श्रावक-धर्मका प्रतिपादन करनेवाली परम्परामें नहीं रहा है । यह अतीचार-सम्बन्धी समस्त विचार बारह व्रतोंको आधार बनाकर श्रावक - धर्मका वर्णन करनेवाले उमास्वाति, समन्तभद्र आदि आचार्योंकी परम्परामें ही रहा है ।
(ब) देशावकाशिक या देशव्रतको गुणव्रत माना जाय, या शिक्षाव्रत, इस विषय में आचार्यों के दो मत हैं, कुछ आचार्य इसे गुणव्रतमें परिगणित करते हैं और कुछ शिक्षाव्रतमें । पर उसका स्वरूप वसुनन्दिसे पूर्ववर्ती सभी श्रावकाचारोंमें एक ही ढंगसे कहा है और वह यह कि जीवनपर्यन्त के लिए किये हुए दिग्व्रतमें कालकी मर्यादा द्वारा अनावश्यक क्षेत्रमें जाने-आनेका परिमाण करना देशव्रत है । पर आ० वसुनन्दिने एकदम नवीन ही दिशासे उसका स्वरूप कहा है । वे कहते हैं
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'दिग्व्रतके भीतर भी जिस देशमें व्रत भंगका कारण उपस्थित हो, वहाँपर नहीं जाना सो दूसरा गुणव्रत है ।' (देखो गा० २१५ )
१. भाटिप्रदानान्नियत कालस्वीकारेण स्वकलत्रीकृत्य वेश्यां वेत्वरिकां सेवमानस्य स्वबुद्धिकल्पनया स्वदारस्वेन व्रतसापेक्षचित्तत्वादल्पकालपरिग्रहाच्च न भंगो वस्तुतोऽस्वदारत्वाच्च भंग इति भंगाभंगरूपोऽतिचारः ।
- सागारध० अ० ४ श्लो० ५८ टीका ।
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२. देखो — रत्नकरण्डक, श्लो० ८८ ।
३. दायादाज्जीवतो राजवर्चसाद् गृह्णतो धनम् ।
दायं वाऽपह्नवानस्य क्वाऽऽचौर्यव्यसनं
शुचि ।। - सागारष० अ० ३, २१
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