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उसकी प्रतिपादन-पद्धतिका भी अनुसरण किया हो। जो कुछ हो, पर इतना निश्चित है कि दिगम्बर-परम्पराके उपलब्ध ग्रन्थोंमें ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर श्रावकधर्मके प्रतिपादनका प्रकार ही सर्वप्राचीन रहा है। यही कारण है कि समन्तभद्रादिके श्रावकाचारों के सामने होते हुए भी, और संभवतः उनके आप्तमीमांसादि ग्रन्थोंके टीकाकार होते हुए भी वसुनन्दिने इस विषयमें उनकी ताकिक सरणिका अनुसरण न करके प्राचीन आगमिक-पद्धतिका ही अनुकरण किया है।
आचार्य वसुनन्दिने श्रावकके मूलगुणोंका वर्णन क्यों नहीं किया, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। वसुनन्दिने ही क्या, आचार्य कुन्दकुन्द और स्वामी कात्तिकेयने भी मूलगुणोंका कोई विधान नहीं किया है। श्वेतांबरीय उपासकदशासूत्र और तत्त्वार्थसूत्र में भी अष्टमूलगुणोंका कोई निर्देश नहीं है। जहाँ तक मैंने श्वेताम्बर ग्रन्थोंका अध्ययन किया है, वहाँ तक मैं कह सकता हूँ कि प्राचीन और अर्वाचीन किसी भी श्वे० आगम सूत्र या ग्रन्थमें अष्टमूलगुणोंका कोई वर्णन नहीं है। दि० ग्रन्थोंमें सबसे पहिले स्वामी समन्तभद्रने ही अपने रत्नकरण्डकमें आठ मूलगुणोंका निर्देश किया है । पर रत्नकरण्डकके उक्त प्रकरणको गवेषणात्मक दृष्टिसे देखनेपर यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि स्वयं समन्तभद्रको भी आठ मूलगुणोंका वर्णन मुख्य रूपसे अभीष्ट नहीं था। यदि उन्हें मूलगुणोंका वर्णन मुख्यतः अभीष्ट होता तो वे चारित्रके सकल और विकल भेद करनेके साथ ही मूलगुण और उत्तरगुण रूपसे विकलचारित्रके भी दो भेद करते। पर उन्होंने ऐसा न करके यह कहा है कि विकल चारित्र अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत-रूपसे तीन प्रकारका है और उसके क्रमशः पाँच, तीन और चार भेद हैं।' इतना ही नहीं, उन्होंने पाँचों अणुव्रतोंका स्वरूप, उनके अतोचार तथा उनमें और पापोंमें प्रसिद्ध होनेवालोंके नामोंका उल्लेख करके केवल एक श्लोक्में आठ मूलगुणोंका निर्देश कर दिया है। इस अष्टमूलगुणका निर्देश करनेवाले श्लोकको भी गंभीर दृष्टि से देखनेपर उसमें दिए गए 'आहुः' और 'श्रमणोत्तमाः' पद पर दृष्टि अटकती है। दोनों पद स्पष्ट बतला रहे हैं कि समन्तभद्र अन्य प्रसिद्ध आचार्योंके मन्तव्यका निर्देश कर रहे हैं। यदि उन्हें आठ मूलगुणोंका प्रतिपादन स्वयं अभीष्ट होता तो वे मद्य, मांस और मधुके सेवनके त्यागका उपदेश आगे जाकर, भोगोपभोग परिमाण-व्रतमें न करके यहीं, या इसके भी पूर्व अणुव्रतोंका वर्णन प्रारंभ करते हुए देते। भोगोपभोगपरिमाणवतके वर्णनमें दिया गया वह श्लोक इस प्रकार है
सहतिपरिहरणार्थं क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहृतये।
मद्यं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातैः ।।८४॥-रत्नक० __ अर्थात् जिन भगवान्के चरणोंकी शरणको प्राप्त होनेवाले व्यक्ति त्रसजीवोंके घातका परिहार करनेके लिए मांस और मधुको तथा प्रमादका परिहार करनेके लिए मद्यका परित्याग करें।
इतने सुन्दर शब्दोंमें जैनत्वकी ओर अग्रेसर होनेवाले मनुष्यके कर्त्तव्यका इससे उत्तम और क्या वर्णन हो सकता था। इस श्लोकके प्रत्येक पदको स्थितिको देखते हुए यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि इसके बहुत पहिले अष्टमूलगुणोंका उल्लेख किया गया है वह केवल आचार्यान्तरों का अभिप्राय प्रकट करनेके लिए ही है। अन्यथा इतने उत्तम, परिष्कृत एवं सुन्दर श्लोकको भी वहीं, उसी श्लोकके नीचे ही देना चाहिए था। १. देखो रत्नक० श्लोक ५१ ।
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