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( ७४ ) रत्नकरण्डकके अध्याय-विभाग-क्रमको गम्भीर दृष्टिसे देखनेपर ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकारको पाँच अणुवत ही श्रावकके मूलगुण रूपसे अभीष्ट रहे हैं। पर इस विषयमें उन्हें अन्य आचार्योंका अभिप्राय बताना भी उचित ऊँचा और इसलिए उन्होंने पाँच अणुव्रत धारण करनेका फल आदि बताकर तीसरे परिच्छेदको पूरा करते हुए मूलगुणके विषय में एक श्लोक द्वारा मतान्तरका भी उल्लेख कर दिया है।
जो कुछ भी हो, चाहे अष्टमूलगुणोंका वर्णन स्वामी समन्तभद्रको अभीष्ट हो या न हो, पर उनके समयमें दो परम्पराओंका पता अवश्य चलता है । एक वह-जो मूलगुणोंकी संख्या आठ प्रतिपादन करती थी। और दूसरी वह-जो मूलगुणोंको या तो नहीं मानती थी, या उनको संख्या पाँच प्रतिपादन करती थी।
__ मूलगुणोंकी पाँच संख्या माननेवालोंमें स्वयं तत्त्वार्थसूत्रकार हैं, इसके लिए दो प्रमाण प्रस्तुत किये जा सकते हैं- प्रथम तो यह कि उन्होंने ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रतको 'शील' नामसे कहा है। और शीलका अर्थ आचार्य अमृतचन्द्रने व्रत-परिरक्षक कहा है जैसे कि नगरका रक्षक उसका परकोटा होता है । (देखो भा० १ पृ० ११३ श्लोक १३६) द्वितीय प्रमाण यह है कि श्वे. तत्त्वार्थभाष्यकारने उक्त शील व्रतोंको उत्तरवत रूपसे स्पष्ट निर्देश किया है । यथा
१. भाष्य-एभिश्च दिग्वतादिभिरुत्तरवतैः सम्पन्नोऽगारी व्रती भवति ।
२. टीका-प्रतिपन्नाणुव्रतस्यागारिणस्तेषामेवाणवतानां दाढ्यांपादनाय शीलोपदेशः । शीलं च गुण-शिक्षाव्रतम् । ३. तत्र तेषु उत्तरगुणेषु सप्तसु दिग्वतं नाम दशानां दिशां यथाशक्ति गमनपरिमाणाभिग्रहः ।
(सप्तम अध्याय सूत्र १६) इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रके भाष्यकार मूल व्रत ५ और उत्तरव्रत ७ मानते थे।
आचार्य कुन्दकुन्द, स्वामी कार्तिकेय, उमास्वाति और तात्कालिक श्वेताम्बराचार्य पाँच संख्याके, या न प्रतिपादन करनेवाली परम्पराके प्रधान थे, तथा स्वामी समन्तभद्र, सोमदेव, अमृतचन्द्र आदि आठ मूलगुण प्रतिपादन करनेवालोंमें प्रधान थे। ये दोनों परम्पराएँ विक्रमकी ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक बराबर चली आई । तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकार-पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्द आदि न माननेवाली परम्पराके आचार्य प्रतीत होते हैं। तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकारोंका उल्लेख इसलिए करना पड़ा कि उन सभीने भोगोपभोगपरिमाण व्रतकी व्याख्या करते हुए ही मद्य, मांस, मधुके त्यागका उपदेश दिया है। इसके पूर्व अर्थात् अणुव्रतोंकी व्याख्या करते हुए किसी भी टीकाकारने मद्य, मांस, मधु सेवनके निषेधका या अष्टमूलगुणोंके विधानका कोई संकेत नहीं किया है। उपलब्ध श्वे० उपासकदशासूत्र में भी अष्टमूलगुणोंका कोई जिक्र नहीं है। सम्भव है, इसी प्रकार वसुनन्दिके सम्मुख जो उपासकाध्ययन रहा हो, उसमें भी अष्टमूलगुणोंका विधान न हो और इसी कारण वसुनन्दिने उनका नामोल्लेख तक भी करना उचित न समझा हो।
वसुनन्दिके उपासकाध्ययनकी वर्णन-शैलीको देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि जब सप्तव्यसनोंमें मांस और मद्य ये दो स्वतंत्र व्यसन माने गये हैं और मद्य व्यसनके अन्तर्गत मधुके परित्यागका भी स्पष्ट निर्देश किया है, तथा दर्शनप्रतिमाधारीके लिए सप्त व्यसनोंके साथ पंच उदुम्बरके त्यागका भी स्पष्ट कथन किया है, तब द्वितीय प्रतिमामें या उसके पूर्व प्रथम प्रतिमामें ही
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