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पं० आशाधरने जिस मतका 'क्वचिद्' करके उल्लेख किया है, वह नीचे टिप्पणीमें दिया गया है, उसमें इतना और विशेष लिखा है कि इन अष्टमूलगुणोंमेंसे यदि एक भी मूलगुणके बिना गृहस्थ है तो वह गृहस्थ या श्रावक नहीं है।
इन चारों मतोंके अतिरिक्त एक मत और भी उल्लेखनीय है और वह मत है आचार्य अमितगगतिका । उन्होंने मूलगुण यह नाम और उनकी संख्या इन दोनों बातोंका उल्लेख किये बिना ही अपने उपासकाध्ययनमें उनका प्रतिपादन इस प्रकासे किया है :
मद्यमांसमधुरात्रिभोजमं क्षीरवृक्षफलवर्जनं त्रिधा। कुर्वते व्रतजिघृक्षया बुधास्तत्र पुष्यति निषेविते व्रतम् ॥
-अमितगति श्रा० अ० ५ श्लोक १ अर्थात्-व्रतग्रहण करनेकी इच्छा से विद्वान् लोग मन, वचन, कायसे मद्य, मांस, मधु, रात्रिभोजन और क्षीरी वृक्षोंके फलोंको सेवनका त्याग करते हैं, क्योंकि इनके त्याग करनेपर गृहीत व्रत पुष्ट होता है।
इस श्लोक में न 'मूलगुण' शब्द है और न संख्यावाची आठ शब्द । फिर भी यदि क्षीरी फलोंके त्यागको एक गिनें तो मूलगुणोंकी संख्या पाँच ही रह जाती है और यदि क्षीरी फलोंकी संख्या पाँच गिनें, तो नौ मूलगुण हो जाते हैं, जो कि अष्ट मूलगुणोंकी निश्चित संख्याका अतिक्रमण कर जाते हैं । अतएव अमितगतिका मत एक विशिष्ट कोटिमें परिगणनीय है।
___ सावयधम्मदोहाकारने आठ मूलगुणोंका नामोल्लेख तो नहीं किया है, पर प्रथम प्रतिमाके स्वरूपमें पाँच उदुम्बर फलोंका और व्यसनोंके त्यागका विधान किया है, अतः मद्य, मांस और मधुके त्यागरूप आठ मूलगुण आ जाते हैं । यही बात गुणभूषण श्रावकाचारमें भी है।
___ आ० रविषेणने पद्मचरितमें आठ मूलगुणोंका नामोल्लेखन करके मद्य, मांस, मधु, द्यूत, रात्रिभोजन और वेश्यागमन-त्यागको नियम कहा है (देखो-भा० ३ पृ० ४१७ श्लोक २३ )
आ० जिनसेनने हरिवंश पुराणमें भी उक्त विधान के साथ अनन्तकायवाले मूलकन्दादिके त्यागका विधान भोगोपभोग परिमाणव्रतके अन्तर्गत किया है। ( देखो-भा० ३ पृ० ४२३ श्लोक ४३)
मूलगुणोंके ऊपर दिखाये गये भेदोंको देखनेपर यह बात बहुत अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि इनके विषयमें मूलगुण माननेवाली परम्परामें भी भिन्न-भिन्न आचार्योंके विभिन्न मत
सूत्रकार उमास्वातिने अपने तत्त्वार्थसूत्रमें यद्यपि मूलगुण ऐसा नाम नहीं दिया है और न उनकी कोई संख्या ही बताई है और न उनके टीकाकारोंने ही। पर सातवें अध्यायके सूत्रोंका पूर्वापर क्रम सूक्ष्मेक्षिकासे देखनेपर एक बात हृदयपर अवश्य अंकित होती है और वह यह कि सातवें अध्यायके प्रारम्भमें उन्होंने सर्वप्रथम पाँच पापोंके त्यागको व्रत कहा ।' पुनः उनका देश और सर्वके भेदसे दो प्रकार बतलाया । पुनः व्रतोंकी भावनाओंका विस्तृत वर्णन किया। अन्तमें पाँच
१. हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्वतम् ॥१॥ २. देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥
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