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( ५५ ) गुरुका स्वरूप बताते हुए कहा है कि जो इन्द्रियोंके विषयोंसे निष्पह हो, आरम्भ और परिग्रहसे रहित हो, तथा ज्ञान, ध्यान और तपमें संलग्न रहता हो । उक्त विशेषणोंसे सभी प्रकारके ढोंगी, विषय-भोगी, आरंभी, परिग्रही और ज्ञान-ध्यानसे रहित मूढ साधुओं का निराकरण किया गया है।
इस प्रकारके आप्त, आगम और साधुओंकी श्रद्धा भक्ति, रुचि या दृढ़ प्रतीतिको सम्यक्त्वका स्वरूप बताकर स्वामी समन्तभद्रने उसके आठों अंगोंका स्वरूप और उनमें ख्याति प्राप्त प्रसिद्ध पुरुषोंके नाम कहे और साथ ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह कही कि जैसे एक अक्षरसे भी हीन मंत्र सर्प-विषको दूर करने में समर्थ नहीं होता है, उसी प्रकार एक भी अंगसे हीन सम्यक्त्व भी संसारकी परम्पराको काटने में समर्थ नहीं है।
एक-एक अंगकी इस महत्ता पर उन लोगोंका ध्यान जाना चाहिए-जो कि पर-निन्दा और आत्म-प्रशंसा करते हुए भी स्वयंको सम्यग्दृष्टि मानते हैं। स्वामी समन्तभद्रने आठ मदोंका वर्णन करते हुए दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह कही कि जो व्यक्ति ज्ञान, तप आदिके मदावेशमें दूसरे धर्मात्मा पुरुषोंकी निन्दा तिरस्कार या अपमान करता है, वह उनका नहीं, अपितु अपने ही धर्मका अपमान करता है, क्योंकि धार्मिक जनोंके बिना धर्म रह नहीं सकता। जो जाति और कुलकी उच्चतासे दूसरे हीन जाति या कुलमें उत्पन्न हुए जनोंकी निन्दा या अपमान करते हैं उन्हें फटकारते हुए कहा-केवल सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न चाण्डालको भी गणधरादिने देव जैसा उच्च कहा है। जैसे भस्माच्छादित अंगार अपने आन्तरिक तेजसे सम्पन्न रहता है। भले ही भस्मसे ढके होनेसे उसका तेज लोगोंको बहिर न दिखे । सम्यक्त्व जैसे आत्मिक अन्तरंग गुणका कोई बाह्य रूप-रंग नहीं कि जो बाहिरसे देखने में आवे ।
इस वर्णनसे उनके भस्मक व्याधि-कालके अनुभव परिलक्षित होते हैं, जब कि उस व्याधिके प्रशमनार्थ विभिन्न देशोंमें विभिन्न वेष धारण करके उन्हें परिभ्रमण करना पड़ा था और लोगोंके मुखोंसे नाना प्रकारको निन्दा सुनना पड़ी थी। पर वे बाह्य वेष बदलते हुए भी अन्तरंगमें सम्यक्त्वसे सम्पन्न थे।
जाति और कुलके मद करनेवालोंको लक्ष्य करके कहा-जाति-कुल तो देहाश्रित गुण हैं। जीवन-भर उच्च गोत्री बना देव भी पापके उदयसे क्षण भरमें कुत्ता बन जाता है, और जीवन-भर नीच गोत्र वाला कुत्ता भी मर कर पुण्यके उदयसे देव बन जाता है।
सम्यक्त्वकी महत्ता बताते हए उन्होंने कहा-यह सम्यग्दर्शन तो मोक्षमार्गमें कर्णधार है, इसके बिना न कोई भव-सागरसे पार ही हो सकता है और न ज्ञान-चारित्ररूप वृक्षकी उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल-प्राप्ति ही हो सकती है। सम्यक्त्व-हीन साधुसे सम्यक्त्व युक्त गृहस्थ मोक्षमार्गस्थ एवं श्रोष्ठ है। तीन लोक और तीन कालमें सम्यक्त्वके समान कोई श्रेयस्कर नहीं
और मिथ्यात्वके समान कोई अश्रेयस्कारी नहीं है । अन्तमें पूरे सात श्लोकों द्वारा सम्यग्दर्शनकी महिमाका वर्णन करते हुए उन्होंने बताया-इसके ही आश्रयसे जीव उत्तरोत्तर विकास करते हुए तीर्थंकर बनकर शिव पद पाता है।
कुन्दकुन्द स्वामीके सभी पाहुड सम्यक्त्वकी महिमासे भरपूर हैं, फिर भी उन्होंने इसके लिए एक दंसणपाहुडकी स्वतंत्र रचनाकर कहा है कि दर्शनसे भ्रष्ट ही व्यक्ति वास्तविक भ्रष्ट है,
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