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नेमिचन्द्रशास्त्री - लिखित, 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' से ही चलता है और न जोहरापुरकर-सम्पादित 'भट्टारक -सम्प्रदाय' में ही उक्त दोनों नामोंका कहीं कोई उल्लेख है ।
सरस्वती भवन ब्यावरकी हस्तलिखित प्रतिमें इसका लेखन-काल नहीं दिया गया है । किन्तु उदयपुरके दि० जैन अग्रवाल मन्दिरकी प्रतिमें लेखन काल १५९३ दिया हुआ है । उसकी अन्तिम पुष्पिका इस प्रकार है
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'अथ संवत्सरेऽस्मिन् १५९३ वर्षे पौषसुदि २ आदित्यवारे श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये ब्र० मानिक लिखापितं आत्मपठनार्थं परोपकाराय च ।'
इस पुष्पिकासे इतना तो निश्चित है कि सं० १५९३ के पूर्व यह रचा गया है और इसीसे यह भी सिद्ध होता है कि प्रवरसेन और अभ्रदेव इससे पूर्व ही हुए हैं ।
प्रस्तुत श्रावकाचारके श्लोक २९३ में श्रुतसागरसूरिके उल्लेखसे सिद्ध है कि ये अदेव उनसे पीछे हुए हैं । श्रुतसागरका समय वि० सं० १५०२ से १५५६ तकका रहा है । अतः इनका समय वि० सं० १५५६ से १५९३ के मध्यमें जानना चाहिए ।
२६. श्रावकाचार सारोद्वार - श्रीपद्मनन्दि
श्रीपद्मनन्दिका यह श्रावकाचार तीसरे भागमें संकलित है। मंगलाचरणमें सिद्धपरमात्मा, ऋषभजिन, चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, वर्धमान, गौतमगणधर और सरस्वतीको नमस्कार कर आ० कुन्दकुन्द, अकलंक, समन्तभद्र, वीरसेन और देवनन्दिका बहुत प्रभावक शब्दोंमें स्मरण किया गया है ।
प्रथम परिच्छेद में पुराणोंके समान मगध देश, राजा श्रेणिक आदिका वर्णनकर गौतम गणधर के द्वारा धर्मका निरूपण करते हुए सम्यक्त्वके आठों अंगोंका वर्णन किया है । दूसरे परिच्छेदमें सम्यग्ज्ञानका केवल १२ श्लोकों द्वारा वर्णनकर अष्टाङ्गों द्वारा उपासना करनेका विधान किया गया है। तीसरे परिच्छेदमें चारित्रकी आराधना करनेका उपदेश देकर आठ मूलगुणों का वर्णन करते हुए मद्य, मांसादिके सेवन - जनित दोषोंका विस्तृत वर्णन है । इस प्रकरणमें अमृतचन्द्रके नामोल्लेखके साथ पुरुषार्थसिद्धयुपायके अनेक श्लोक उद्धृत किये हैं। रात्रिभोजन के दोष बताकर उसका निषेधकर श्रावकके बारह व्रतोंका विस्तृत विवेचनकर सल्लेखना - विधिका वर्णन करते हुए 'समाधिमरण आत्मघात नहीं है' यह सयुक्तिक सिद्ध किया गया है । अन्तमें सप्त व्यसन सेवनके दोषों को बताकर उनके त्यागका उपदेश दिया गया है । इस श्रावकाचारमें श्रावककी ११ प्रतिमाओंके नामों का उल्लेख तक भी नहीं किया गया है ।
इसे श्रावकाचार-सारोद्धार नामसे प्रख्यात करते और अनेकों श्रावकाचारोंके श्लोकोंको 'उक्तं च' कहकर उद्धृत करते हुए भी 'अमृतचन्द्रसूरि' के सिवाय किसी भी श्रावकाचार रचयिताके नामका उल्लेख नहीं किया गया है, जबकि रत्नकरण्डके और सोमदेवके उपासकाध्ययन के बीसों श्लोक इसमें उद्धृत किये गये हैं ।
पं० मेधावीके समान इसमें भी श्रावकधर्मका उपदेश प्रारम्भ गौतम गणधरसे कराके बीचबोच में 'उक्तं च' कहकर अन्य ग्रन्थोंके उद्धरण देकर उसका निर्वाह पद्मनन्दि नहीं कर सके हैं ।
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