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पद्मनन्दीने अपनी गुरु परम्पराका स्पष्ट उल्लेख किया है, पर उमास्वामी श्रावकाचारके रचयिताने न अपनी गुरुपरम्पराका उल्लेख किया है और न अपना ही कोई परिचय दिया है ।
पट्टावलियों में भी श्रावकाचारके रचनेवाले उमास्वामीका कहीं कोई उल्लेख नहीं है, जब कि तत्त्वार्थ सूत्रकार उमास्वाति या उमास्वामीका उल्लेख शिलालेखों तकमें पाया जाता है ।
इन सब कारणोंसे यही सिद्ध होता है कि यह श्रावकाचार किसी भट्टारकने इधर-उधरके अनेकों श्लोकोंको लेकर तथा बीच-बीचमें कुछ स्वयं रचित श्लोकोंका समावेश करके रचा है ।
२३. पूज्यपाद - श्रावकाचार - श्रीपूज्यपाद
यह श्रावकाचार भी जैनेन्द्रव्याकरण, सर्वार्थसिद्धि आदि प्रसिद्ध ग्रन्थोंके प्रणेता पूज्यपाद देवनन्दिका रचा हुआ नहीं है । किन्तु इस नामके किसी भट्टारक या अन्य विद्वान्का रचा हुआ है । ऐ० पन्नालाल सरस्वती-भवन ब्यावर में इसको दो प्रतियाँ है, जिसमें एक अधूरी है और दूसरीमें न कोई अन्तिम प्रशस्ति है और न प्रति-लेखन-काल ही दिया हुआ है। तो भी कागजस्याही लिखावट आदिकी दृष्टिसे वह दो सौ वर्ष पुरानी अवश्य है ।
इसमें कोई अधिकार विभाग नहीं है । श्लोक संख्या १०३ है । प्रारम्भमें सम्यक्त्वका स्वरूप और माहात्म्य बताकर आठ मूलगुणोंका वर्णन है । पुनः श्रावकके १२ व्रतोंका निरूपण करके सप्त व्यसनोंके त्यागका और कन्दमूलादि अभक्ष्य पदार्थोंके भक्षणका निषेध किया गया है । तत्पश्चात् मौनके गुण बताकर चारों प्रकारके दानोंको देनेका और दानके फलका विस्तृत वर्णन है । पुन: जिनबिम्बके निर्माणका, जिन-पूजन करने और पर्वके दिनोंमें उपवास करनेका फल बताकर उनके करने की प्रेरणा की गई है । अन्तमें रात्रि भोजन करनेके दुष्फलोंका और नहीं करनेके सुफलोंका सुन्दर वर्णन कर धर्म सेवन सदा करते रहनेका उपदेश दिया है क्योंकि कब मृत्युरूप यमराज लेनेको आ जावे । इस प्रकार संक्षेपमें श्रावकोचित सभी कर्तव्योंका विधान इसमें किया गया है ।
इस श्रावकाचार में महापुराण, यशास्तलक, उमास्वामि श्रावकाचार, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार आदिके श्लोकोंको 'उक्तं च' आदि न लिखकर ज्योंका त्यों अपनाया गया है और श्लोक ७८ में जिनसंहिताका स्पष्ट उल्लेख है, अतः यह उक्त श्रावकाचारोंसे पीछे रचा गया सिद्ध होता है । श्रावकाचारके नाते इसे प्रस्तुत संग्रहके तीसरे भागमें संकलित किया गया है ।
भट्टारक-सम्प्रदायकी किसी भी शाखा में 'पूज्यपाद' नामके भट्टारकका कोई उल्लेख, देखने में नहीं आया है, अतः निश्चितरूपसे इसका रचना-काल अज्ञात है । अनुमानतः यह सकलकीर्तिके प्रश्नोत्तर श्रावकाचारके पीछे रचा गया प्रतीत होता है ।
२४ व्रतसार श्रावकाचार
प्रस्तुत श्रावकाचार-संग्रहमें संकलित श्रावकाचारोंमें यह सबसे लघुकाय है । इसमें केवल २२ श्लोक हैं जिनमें दो प्राकृत गाथाएँ भी परिगणित हैं । इसके भीतर सम्यग्दृष्टि - मिथ्यादृष्टिका स्वरूप, समन्तभद्र - प्रतिपादित श्लोकके साथ अष्टमूलगुणों का निर्देश, अभक्ष्य पदार्थोंके भक्षणका, अगालित जल-पानका निषेध, बारह व्रतोंका नामोल्लेख और हिंसक पशु-पक्षियोंको पालनेका निषेध किया गया है। रात्रि भोजनको तत्त्वतः आत्मघात कहा गया है। सुख-दुःख, मार्ग, संग्राम
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