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सम्पादकीय (तृतीय संस्करण)
1. मूल और अनुवाद समग्र जैन परम्परामें मूल तत्त्वार्थसूत्र पर उपलब्ध टीकाओं में लिखी गई 'सर्वार्थसिद्धिवृत्ति' यह प्रथम टीका है और सर्वांग अध्ययन करनेके बाद निश्चित होता है कि 'तत्त्वार्थाधिगमभाष्य' इसके बादकी रचना है जो सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवातिकके मध्यकाल में रची गयी है। यही कारण है कि तत्त्वार्थभाष्यमें स्वीकृत अनेक सूत्रोंकी उसमें आलोचना दृष्टिगोचर होती है, जबकि सर्वार्थसिद्धिवृत्तिके पहले तत्त्वार्थभाष्य लिखा गया था इस बात का आभास भी नहीं मिलता। यह ठीक है कि सर्वार्थसिद्धिकी रचना होनेके पूर्व श्वेताम्बर परम्परा मान्य तथाकथित आचारांगादि नामवाले अंगों की रचना हो गई थी। अन्यथा सर्वार्थसिद्धिमें केवलिकवलाहार आदि जैसे विषयोंकी आलोचा दृष्टिगोचर नहीं होती।
यह वस्तुस्थिति है। प्रज्ञाचक्षु स्व० श्री पं० सुखलालजी इस स्थितिसे अच्छी तरह परिचित थे। फिर भी उनके द्वारा अनूदित तत्त्वार्थसूत्र के तृतीय संस्करण की प्रस्तावना पर दृष्टिपात करने से ऐसा नहीं लगता है कि उन्होंने अपने पुराने विचारों में यत्किंचित् भी परिवर्तन किया है । अस्तु, हम तो अभी तक जैन दर्शनकी शिक्षा द्वारा यही जान पाये हैं कि मोक्ष का अर्थ है आत्मा का संयोग और संयोग-वृत्ति से छुटकारा पाकर अकेला होना । और यह तभी सम्भव है जब जीवनमें पूर्ण स्वावलम्बन को बाहर-भीतर दोनों प्रकार से अंगीकार किया जाय। दिगम्बर परम्परा पर हमारी श्रद्धा होनेका कारण भी यही है। इसलिए जहां हम जैनदर्शनके इस परमार्थभूत निष्कर्ष को स्वीकार करते हैं वहाँ हम तत्सम्बन्धी साहित्य की ऐतिहासिकता को भी उसी रूप में स्वीकार करते हैं जिस क्रम से वह लिपिबद्ध होकर प्रकाशमें आया है। श्वेताम्बर परम्परा का आगम साहित्य ईसा की पांचवीं शताब्दी में संकलित हुआ यह हमें मान्य है। अतः स्पष्ट है कि उसका समर्थक अन्य साहित्य भी उसके बाद ही लिखा गया है। यही कारण है कि उसी सम्प्रदाय के लेखकों ने 'तत्त्वार्थाधिगम भाष्य' के लेखनकाल को आठवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध निश्चित किया है।
ऐतिहासिक दृष्टि से किये गये इस प्रकार के सामान्य अवलोकनके बाद, अब यहां हम सर्वार्थसिद्धिके द्वितीय संस्करण के मूल और अनुवाद में जो आवश्यक संशोधन किये गये उन्हें क्रम से यहाँ दे रहे हैं
द्वितीय संस्करण जीवमें जीवत्व सदा पाया जाता है
पृ०-५० 13-30
प्रस्तुत संस्करण
पृ०-५० जीवन सामान्यकी अपेक्षा जीव सदा विद्यमान है।
13-30 शास्त्रों में प्रयोजनके अनुसार
14-18 स्वरूप दोनों प्रमाणों और विविध नयोंके 15-1
14-17 14-35
शास्त्र में अनेक स्वरूप प्रमाणों और नयोंके शान तो केवलज्ञानरूप तो माने ही गये हैं।
15-30
ज्ञान मात्र ज्ञानरूप माने गये हैं
15-31
1. पृथुतरा इति केषांचित् पाठः तम्वा० 3-1 । अथान्ये धर्माधर्मकालाकाशेषु अनादिः परिणामः आदिमान
जीवपुद्गलेषु इति वदन्ति । त.वा.5-41 वार्तिक । 2. स०सि० 6-131
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