Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 13
________________ [१२] कतायें कल्पवृक्षोंसे ही पूरी होजाया करती थीं। अच्छे और बुरेका कोई भेद नहीं था। पुण्य और पाप दोनों भिन्न प्रवृत्तियां नहीं थीं। व्यक्तिगत संपत्तिका कोई भाव नहीं था । 'मेरा' और 'तेरा' ऐसा भेदभाव नहीं था। यह अवस्था भोगभूमिकी थी। क्रमशः यह अवस्था बदली । कल्पवृक्षोंका लोप होगया। मनुष्यों को अपनी आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिये श्रम करना पडा । व्यक्तिगत संपत्तिका. भाव जागृत हुआ। कृषि आदि उद्यम प्रारम्म हुए । लेखन आदि कलाओंका प्रादुर्भाव हुआ, इत्यादि । इस प्रकार कर्मभूमिका प्रारम्भ हुआ। शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार करनेपर ज्ञात होता है कि इस भोगभूमिके परिवर्तनमें कई अस्वाभाविकता नहीं है। बल्कि यह आधुनिक सभ्यताका अच्छा प्रारम्भिक इतिहास है । जिन्होंने सुवर्णकाल (Golden age) के प्राकृतिक जीवन (Life according to Nature) का कुछ वर्णन पढ़ा होगा वे समझ सकते हैं कि उक्त कथनका क्या तात्पर्य हो सकता है । आधुनिक सभ्यताके प्रारम्भ कालमें मनुष्य अपनी सब आवश्यकताओंको स्वच्छन्द बनजात वृक्षों की उपजसे ही पूर्ण कर लिया करते थे। वस्त्रोंके स्थानमें बल्कल और भोजनके लिये फलादिसे तृप्त रहनेवाले प्राणियों को धनसम् त्तिसे क्या तात्पर्यता ? सबमें समानताका व्यवहार था । मेरे और तेरेका भेदभाव नहीं था। क्रमशः आधुनिक सभ्यताके आदि धुरधरोंने नानाप्रकारके उद्यम और कलाओंका आविष्कार कर मनुष्यों को सिखाया। जन पुगणों के अनुसार इस सभ्यताका प्रचार चौदह कुलकरों द्वारा हुआ। सबसे पहले कुलकर प्रतिश्रुतिने सूर्य चन्द्रका ज्ञान मनुष्यों को कराया । इस प्रकार वे ज्योतिष शास्त्रके आदि आविश्कर्ता ठहरते हैं। उनके पीछे सन्मति, क्षेमकर, क्षेमंधरादि हुए. जिन्होंने ज्योतिष शास्त्रका ज्ञान बढाया, अन्य कलाओंका अविष्कार किया व सामाजिक नियम दण्ड विधानादि नियत किये। जैन पुराणोंने इस इतिहासको, यदि विचार किया जाय, तो सचमुच बहुत अच्छे प्रहारसे सुरक्षित रक्खा है। धर्मके संस्थापक । . . . . कुलकरों के पश्चात् ऋषभदेव. हुंए जिन्होंने धर्मकी संस्थापना की। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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