Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 12
________________ [१] अस्थिपञ्जर भी मिले हैं। जितने अधिक दीर्घकाय ये अस्थिपंजर के पाषाणावशेष होते हैं वे उतने ही अधिक प्राचीन अनुमान किये जाते हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि पूर्वकालमें प्राणी दीर्घकाय हुआं करते थे। धरे २ उनके शरीरका ह्रास होता गया। यह ह्रास-क्रम अभी भी प्रचलित है । इस नियमके अनुसार जितना अधिक प्राचीनकालका मनुष्य होगा उसे उतना ही अधिक दीर्घ काय मानना न केवल युक्तिसङ्गत ही है किन्तु आवश्यक है । प्राणिशास्त्रका यह नियम है कि जिस जीवका जितना भारी शारीरिक परिमाण होगा उतनी ही दीर्घ उसकी आयु होगी। प्रत्यक्षमें भी हम देखते हैं कि सूक्ष्म जीवोंकी आयु बहुत अल्पकालकी होती है। जन्मके थोड़े ही समय पश्चात् उनका शरीर अपने उत्कृष्ट परिमाणको पहुंच जाता है और वे मृत्युको प्राप्त हो जाते हैं। जिस २ प्राणीका शरीर बढता जाता है उसकी आयु भी उसीके अनुसार बढती जाती है। हाथी सब जीवोंमें बड़ा है इससे भी उसकी आयु सब जीवोंसे बडी है। वनस्पतियोंमें भी यही नियम है । जो वृक्ष जितना अधिक विशालकाय होता है उतने ही अधिक समय तक वह फूलता फलता है। वटवृक्ष सब वनस्पतियोंमें भारी होता है। अतएव उसका अस्तित्व भी अन्य सब वृक्षोंकी अपेक्षा अधिक कालतक रहता है । अतएव यह प्रकृतिके नियमानुकूल व मानवीय ज्ञान और अनुभवके विरुद्ध ही है, जो जैन पुराण यह प्रतिपादित करते हैं कि प्राचीनकालके अति दीर्घकाय पुरुषोंकी आयु अति दीर्घ हुआ करती यी, इसके विरुद्ध यदि जैन पुराण यह कहते कि प्राचीनकालके मनुष्य दीर्घकाय होते हुए अल्पायु हुआ करते थे या अल्पकाय होते हुए दीर्घायु हुआ करते थे तो यह प्रकृति विरुद्ध और अनुभव प्रतिकूल बात होनेके कारण अविश्वसनीय कही जा सकती थी। भोगभूमि और कर्मभूमि । तीसरा शंकास्पद विषय भोगभूमि और कर्मभूमिके विपरीत वर्तनका है। जैन पुगणोंमें कथन है कि पूर्वकालमें इसी कालमें इसी क्षेत्रके निवासी मुखसे बिना श्रमके कालयापन करते थे। उनकी सब प्रकास्की आवश्यShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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