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॥ अथ प्रथम जीवद्वार प्रारंभ ॥ १ ॥ कवि व्यवस्था कथन ॥ छप्पैलंद. हूं निश्चय तिहु काल, शुद्ध चेतनमय मूरति । पर परणति संयोग, भई जड़ता विस्फूरति । मोहकर्म पर हेतु पाई, चेतन पर रच्चय । । ज्यों धतूर रसपान करत. नर बहुविध नच्चय । अव समयसार वर्णन करत, परम शुद्धता होहु मुझ । अनयास वनारसीदास कही, मिटो सहज भ्रमकी अरुझ ॥ ४ ॥
अन आगम ( शास्त्र ) माहात्म्य कथन ॥ सवैया ३१ सा. निहचेमें एकरूप व्यवहारमें अनेक, याही नै विरोधनें जगत भरमायो है | जगके विवाद नाशिवेको जिनआगम है, ज्यामें स्यादवादनाम लक्षण -सुहायो है | दरसनमोह जाको गयों है, सहजरूप, आगम प्रमाण ताके हिरदेमें आयो है ॥ अनयसो अखंडित अनूतन ऽनंत तेज, ऐसो पद पूरण - तुरंत तिन पायो है ॥ ५ ॥
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दृढवाही || त्यौ
अब निश्चय नय अर व्यवहार नय स्वरूप कथंन ॥ सवैया २३ सा. - ज्यों नर कोऊ गिरे गिरिसो तिहि, होइ हित ज बुधको विवहार भलो, तबलौ जवलौ सिव प्रापति नाहीं ॥ माण तथापि, सधै परमारथ चेतन माही || जीव अन्यापक है परसो, विवहारसु तो परकी परछाहीं ॥ ६ ॥
यद्यपि यो पर
अब सम्यक्दर्शन स्वरूप व्यवस्था ॥ सबैया ३१ सां.
शुद्धनय निहचै अकेला आप चिदानंद, आपनेही गुण परजायको गहत है ॥ पूरण विज्ञानघन सो है व्यवहार माहि, नव तत्वरूपी पंच द्रव्यमें-रहत है ॥ पंचद्रव्य नवतत्व न्यारे जीव न्यारो लखे सम्यक दरस यह