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( ८६) ज्ञेयाकार ज्ञानकी परणति, पै वह ज्ञान ज्ञेय नहिं होय ॥ ज्ञेयरूप पट् द्रव्य भिन्न पद, ज्ञानरूप आतम पद सोय ॥ जाने भेद भाव विचक्षण, गुण लक्षण सम्यकदृग जोय ॥ . मूरख कहे ज्ञान महि आकृति, प्रगट कलंक लखे नहि कोय ॥ ५२॥ निराकार जो ब्रह्म कहावे । सो साकार नाम क्यों पावे ॥ . ज्ञेयाकार ज्ञान जव ताई । पूरण ब्रह्म नांहि तत्र ताई ।। ५३ ॥ ज्ञेयाकार ब्रह्म मल माने । नाश करनको उद्यम ठाने ॥ वस्तु स्वभाव मिटे नहि कोही । ताते खेद करे सठ योही ॥ ५४ ॥ मूढ मरम जाने नहीं, गहि एकांत कुपक्ष ॥ ५४॥ स्याद्वाद सरवंगमें, माने दक्ष प्रत्यक्ष ॥ ५५ ॥ शुद्ध द्रव्य अनुभौ करे, शुद्ध हष्टि घटमांहि । ताते सम्यक्वंत नर, सहज उछेदक नांहि ॥ ५६ ॥
३१ सा-जैसे चंद्र किरण प्रगटि भूमि स्वेत करे, भूमिसी न होत सदा ज्योतिसी रहत है ॥ तैसे ज्ञान शकति प्रकाशे हेय उपादेय, ज्ञेयाकार दीसे पैन ज्ञेयको गहत है॥शुद्ध वस्तु शुद्ध परयायरूप परिणमे, सत्ता परमाण मांहि ढ़ाहे न ढठत है | सोतो औररूप कबहू न होय सरवथा, निश्चय अनादि जिनवाणी यों कहत है ॥ ५७॥
२३ सा-राग विरोध उदै. जवलों तवलों, यह जीव मृषा मग धावे ॥ ज्ञान जग्यो जब चेतनको तब, कर्म दशा.पर रूप कहावे ॥ कर्म विलक्ष करे अनुभौ तहां, मोह मिथ्यात्व प्रवेश न पावे ॥ मोह गये उपजे सुख केवल, सिद्ध भयो जगमाहि न आवे ॥ १८ ॥