Book Title: Samaysar Natak
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
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(१३१ ) . जहां तहां जिनवाणी फैली । लखे न सो नाकी मति मैली ॥ - जाके सहन बोध उतपाता । सो ततकाल लखे यह बाता ॥ ३१ ॥
घटघट अंतर जिन बसे, घटबट अंतर जैन ।
मत मदिराके पानसो, मतमाला समुझेन ॥ ३२॥ बहुत बढाई कहालों कीजे । कारिज रूप बात कहि लीजे ॥ नगर आगरे मांहि विख्याता । बनारसी नामे लघु ज्ञाता ॥ ३३ ॥ तामें कवित कला चतुराई । कृपा करे ये पांचौं भाई ॥ ये प्रपंच रहित हित खोले । ते बनारसीसों हँसि वोले ॥ ३४ ॥ नाटक समसार हित जीका । सुगम रूप राजमल टीका - कवित बद्ध रचना जो होई । भाखा ग्रंथ पढे सत्र कोई ॥ ३५ ॥ तब बनारसी मनमें आनी । कीने तो प्रगटे जिनवानी ॥ पंच पुरुपकी आज्ञा लीनी । कवित बंधकी रचना कीनी ॥ ३६॥ सोरहसे तिराणवे वीते । आसु मास सित पक्ष वितीते ॥ तेरसी रविवार प्रवीणा । ता दिन ग्रंथ समापत कीना ॥ ३७ ॥ सुख निधान शक बंधनर, साहिब साह किराण। सहस साहि सिर मुकुट मणि, साह जहां सुलतान । जाके राजसु चैनसो, कीनों आगम सार। इति भीति व्यापे नयी, यह उनको उपकार ॥३९॥ समयसार आतम दरव, नाटक भाव अनंत । सोहै आगम नाममें, परमारथ विरतंत ॥ ४० ॥

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