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चो० – अत्र यह बात कहूंहूं जैसे । नाटक भाषा भयो सु ऐसे ||
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कुंदकुंदमुनि मूल उधरता । अमृतचंद्र टीका करता ॥ २१ ॥ समेसार नाटक सुखदानी । टीका सहित संस्कृत वानी ॥ पंडित पढे अरु दिढमति ब्रूझे । अल्प मतीको अरथ न सूझे ॥ २२ ॥ पांडे राजमल जिनधर्मी । समयसार नाटकके मर्मी ॥
तिन्हे गरंथकी टीका कीनी । बालबोध सुगम करि दीनी ॥ २३ ॥ इहविधि बोध वचनिका फैली । समै पाइ अभ्यातम सैली | प्रगटी जगमांहीं जिनवानी । घरघर नाटक कथा वखानी ॥ २४ ॥ नगर आगरे मांहि विख्याता । कारण पाइ भये बहुज्ञाता ॥ पंच पुरुष अंति निपुण प्रवीने । निसिदिन ज्ञान कथा रस भीने ॥ २५ ॥ रूपचंद पंडित प्रथम दुतिय चतुर्भुज नाम । तृतिय भगोतीदास नर, कोरपाल गुण धाम ॥ २६ ॥ धर्मदान ये पंच जन, मिलि बैठहि इक ठोर । परमारथ चरचा करे, इनके कथा न और ॥ २७ ॥ कबहूं नाटक रस सुने, कबहूं और सिद्धंत । कबहूं बिंग बनायके, कहे बोध विरतंत ॥ २८ ॥ चितचकोर अर धर्म धुर, सुमति भगौतीदास । चतुर भाव थिरता भये, रूपचंद परकास ॥ २९ ॥ इसविधि ज्ञान प्रगट भयो, नगर आगरे माहिं । देस देस में विस्तरे, मृषा देशमें नाहि ॥ ३० ॥ :