Book Title: Samaysar Natak
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 129
________________ (१२८) अनंत रूप, रूपमें अनंत सत्ता ऐसो जीव नट है ॥ १ ॥ ब्रह्मज्ञान आकाशमें, उड़े सुमति ख़ग होय । यथा शाक्त उद्यम करे, पार न पावे कोय ॥६॥ चौ०-ब्रह्मज्ञान नभ अंत न पावे । सुमति परोक्ष कहांलों धावे ॥ जिहि विधि समयसार निनि कीनो । तिनके नाम कहूं अब तीनो॥७॥ ३१ सा-प्रथम श्रीकुंदकुंदाऽचार्य गाथा बद्ध करे, समैसार नाटक विचारि नाम दयो है । ताहीके परंपरा अमृतचंद्र भये तिन्हे, संसकृत कलसा समारि सुख लयो है । प्रगटे बनारसी गृहस्थ सिरीमाल अत्र, किये है कवित्त हिए बोध बजि. बोयो है ॥ शवद अनादि तामें अरथं अनादि जीव, नाटक अनादि यों अनादिहीको भयो है ॥ ८॥ . चौ०-अब कछु कहूं जथारथ बानी । सुकवि कुक विकथा कहानी ॥ . प्रतमहि सुकवि कहावे सोई। परमारथ रस वरणे जोई ॥ ९ ॥ ... ..कलंपित वात हित नहि आने । गुरु परंपरा रीत वखाने ॥ . . सत्यारथं सैली नहि छडे । मृषा वादसों प्रति न मंडे ॥ १० ॥. छंद शब्द अक्षर अरथ, कहे सिद्धांत प्रमान। जो इहविधि रचना रचे, सो है कवी सुजानः॥ ११ ॥ चौ०- अव सुन कुकवि कहों है जैसा । अपराधी हिय अंध अनेसा॥ मृषा भाव रस वरणे हितसों। नई उकति जे उपजे चितसों ॥ १२ ॥ ख्याति लाभ पूजा मन आने । परमारथ पथ भेद न जाने ॥ .. वानी जीव एक करि बूझे । नाकों चिंत जड़ ग्रंथ न सूझे ॥ १३ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 127 128 129 130 131 132 133 134