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(१२७) 1, ३१ सा-जगतके प्राणि जीति व्है । रह्यो गुमानि ऐसो, आश्रय असुर दुखदानि महाभीम है ॥ ताको परताप खंडिवेको परगट भयो, धर्मको धरैया कर्म रोगको हकीम है ॥ जाके परभाव आगे भागे परभाव सव, नागर नवल सुख सागरकी सीम है । संवरको रूप धरे साधे शिव राह ऐसो, ज्ञान पातसाह ताकों मेरी तसलीम है ॥ ११३ ॥
चौ०-भयो ग्रंथ संपूरण भाखा । वरणी गुणस्थानककी शाखा ॥ वरणन और कहांलों कहिये । जथा शक्ति कहि चुप है रहिये ॥१॥ लहिए पार न ग्रंथ उदधिका । ज्योज्यों कहिये त्योंत्यों अधिका ॥ ताते नाटक अगम अपारा अलप कवीसुरकी मतिधारा ॥२॥ समयसार नाटक अकथ, कविकी मति लघु होय । ताते कहत बनारसी, पूरण कथै न कोय ॥३॥ .
३१ सा-जैसे कोऊ एकाकी सुभट पराक्रम करि, जीते केहि भांति चक्री कटकसों लरनो ॥ जैसे कोऊ परवीण तारूं भुज भारू नर, तिरे कैसे स्वयंभू रमण सिंधु तरनो ॥ जैसे कोउ उद्यमी उछाह मन माहि धरे, करे कैसे कारिज विधाता कोसो करनो ॥ तैसे तुच्छ मति मेरी तामें कविकला थोरि, नाटक अपार मैं कहांलों यांहि. वरनो॥ ४॥ ..
३१ सा-जैसे वट वृक्ष एक तामें फल है अनेक, फल फल बहु बीन बीज बीज वट है ॥ वट मांहि फल फल मांहि बीज तामें वट, की जो विचार तो अनंतता अघट है ॥ तैसे एक सत्तामें अनंत गुण परयाय, पर्यामें अनंत नृत्य तामेऽनंत ठट है ॥ ठटमे अनंत कला कलामें