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विन परकाश सूरज न मानिये ॥ तैसे विन ज्ञापक शकति न कहावे ज्ञान, यह तो न पक्ष परतक्ष परमानिये ॥२७॥ • इहि विधि आतम ज्ञान हित, स्यादवाद परमाण ।
जाके वचन विचारसों, मूरख होय सुजान ॥२८॥ . स्यादवाद आतम दशा, ता कारण बलवान । शिव साधक बाधा रहित, अखै अखंडित आन ॥२९॥
जोइ जीव वस्तु अस्ति प्रमेय अगुरु लघु, अभोगी अमरतकि परदेशवंत है । उतपत्तिरूप नाशरूप अविचल रूप, रतनत्रयादिगुण भेदसों
अनंत है ॥ सोई जीव दरव प्रमाण सदा एक रूप, ऐसे शुद्ध निश्चय .. स्वभाव विरतंत है ।। स्यादवाद मांहि साध्यपद अधिकार कह्यो, अब आगे कहिवेको साधक सिद्धंत है ॥ ३०॥ स्याद्वाद अधिकार यह, कह्यो अलप विस्तार । . अमृतचंद्र मुनिवर कहे, साधकं साध्य दुवार ॥ ३१ ॥ ॥ इति श्रीसमयसार नाटकको ग्यारहमो स्याद्वाद नयद्वार
समाप्त भयो ॥ ११॥
॥ अथ बारहमो साध्य साधक .
द्वार प्रारंभ ॥१२॥ साध्य शुद्ध केवल दशा, अथवा सिद्ध महंत। . साधक अविरत आदि बुध, क्षीण मोह परयंत ॥ १ ॥