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(१०४) ३१ सा--जाको आधो अपूरव अनिवृत्ति करणको, भयो लाभ हुई गुरु वचनकी वोहनी ।। जाको अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ, अनादि मिथ्यात्व मिश्र समकित मोहनी ॥ सातों परकति क्षपि किंवा उमशमी जाके, जगि उर मांहि समकित कला सोहनी ॥ सोई मोक्षसाधक कहायो ताके सरवंग, प्रगटी शकति गुण स्थानक आरोहनी ।। २ ।। . सोरठा-जाके मुक्ति समीप, भई भव स्थिति घट गई।
ताकी मनसा सीप, सुगुरु मेघ मुक्ता वचन ॥ ३॥ : ज्यों वर्षे वर्षा समें, मेघ अखंडित धार।
त्यों सद्गुरु वाणी खिरे, जगत जीव हितकार ॥४॥ . २३ सा-चेतनजी तुम जागि विलोकहु, लागि रहे कहां मायाके ताई ।। . आये कहीसों कही तुम जाहुंगे, माया रहेगी जहांके तहाई ॥ . .
माया तुमारी न जाति न पाति न, वंशकी वलि न अंशकी झांई ।। दासि किये विन लातनि मारत, ऐसी अनीति न कीजे गुसांई ॥ ५ ॥ माया छाया एक हैं, घटे बढ़े छिन मांहि । .
इनक संगति जे लगे; तिन्हे कहूं सुख नांहि ॥६॥ २३ सा-लोकनिसों कछु नांतो न तेरो, न तोसों कछू इह लोकको नांतो ॥ ते तो रहे रमि स्वारथके रस, तूं परमरथके रस मांतो॥ ये तनसों तनमें तनसे जड़, चैतन. तूं तनसों निति होतो ॥ होहुँ सुखी अपनो बल फेरिके, तोरिके राग विरोधको तातो ॥ ७ ॥ सोरठा-जे दुर्बुद्धी जीव, ते उत्तंग पदवी चहे। जे सम रसी सदीव, तिनको कछू न चाहिये ॥८॥