________________
(१११) मुकत महंत है ।। ज्ञायक स्वभाव धरे लोकाऽलोक परकासि, सत्ता परमाण सत्ता परकाशवंत है । सो है जीव जानत जहांन कौतुक महान, जाकी कीरति कहान अनादि अनंत है ॥ ४८ ॥
पंच परकार ज्ञानावरणको नाश करि, प्रगटि प्रसिद्ध जग माहि जगमगी है। ज्ञायक प्रभाग नाना शेयकी अवस्था धरि, अनेक भई पै एकताके रस पगी है । याही भांति रहेगी अनादिकाल परयंत, अनंत शकति फेरि अनंतसो लगी है ।। नर देह देवलमें केवल स्वरूप शुद्ध, ऐसी ज्ञान ज्योतिकी सिखा समाधि जगी है ॥ ४९ ॥ ___ अक्षर अरथमें मगन रहे सदा काल, महा सुख देवा जैसी सेवा काम गविकी ॥ अमल अबाधित अलख गुण गावना है, पावना परम शुद्ध भावना है भविकी ॥ मिथ्यात तिमिर अपहारा वर्धमान धारा, जैसे उभै जामलों किरण दीपे रविकी ॥ ऐसी है अमृतचंद्र कला त्रिधारूप धरे । अनुभव दशा ग्रंथ टीका बुद्धि कविकी ॥ ५० ॥
नाम साध्य साधक कह्यो, द्वार द्वादशम ठीक । समयसार नाटक सकल पूरण भयो सटीक ॥ ५१ ॥ अब कवि कुछ पूरव दशा, कहे आपसों आप। सहज हर्ष मनमें धरे, करे न पश्चात्ताप ॥ १॥
३१ सा--जो मैं आप छोडि दीनो पररूप गहि लीनो, कीनो न वसेरो तहां जहां मेरा स्थल है ॥ भोगनिको भोगि व्है करमको करता भयो, हिरदे हमारे राग द्वेष मोह मल है ॥ ऐसे विपरीतः चाल भई जो अतीत काल, सो तो मेरे क्रियाकी ममता ताको फल है ॥ ज्ञानदृष्टि भासी