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ग्रंथ उकति पथ ऊथपे, थापे कुमत स्वकीय | सुजस हेतु गुरुता गहे, सो विपरीती जीय ॥ १२ ॥ देव कुदेव सुगुरु कुगुरु, गिने समानज कोय | नमै भक्ति सबनकूं, विनै मिथ्यात्वी सोय ॥ १३ ॥ जो नाना विकलप गहे, रहे हिये हैरान । थिर व्है तत्व न सहे, सो जिय संशयवान ॥ १४ ॥ जाको तन दुख दहलसें, सुरति होत नहिं रंच । गहेरूप वर्ते सदा, सो अज्ञान तिर्यंच ॥ १५ ॥ ५. पंच भेद मिथ्यात्वके, कहे जिनागम जोय । सादि अनादि स्वरूप अब, कहूं अवस्था दोय ॥ १६ ॥ जो मिथ्यात्व दल उपसमें, ग्रंथि भेदि बुध होय । फिरि आवे मिथ्यात्व में, सादि मिथ्यात्वी सोय ॥ १७ ॥ जिन्हे ग्रंथि भेदी नहीं, ममता मगन सदीव | सो अनादि मिथ्यामती, विकल बहिर्मुख जीव ॥ १८ ॥ . का प्रथम गुनस्थान यह, मिथ्यामत अभिधान । कल्परूप अब वर्णवूं, सासादन गुणस्थान ॥ १९ ॥
३१ सा— जैसे कोउ क्षुधित पुरुष खाई खीर खांड, वोन करे पीछेके लगार स्वाद पावे है ॥ तैसे चढि चौथे पांचे छठ्ठे एक गुणस्थान, काहूं उपशमीकूं कषाय उदै आवे है | ताहि सधैं तहांसे गिरे प्रधान दशा न्त्यागि, मिथ्यात्व अवस्थाको अधोमुख न्है धावे है ॥ बीच एक समै वा छ आवली प्रमाण रहे, सोइ सांसादन गुणस्थानक कहावे है ॥ २० ॥ :
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