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(९४) द्रव्यलिंग न्यारी प्रगट, कला वचन विज्ञान । अष्ट रिद्धि अष्ट सिद्धि, एहूं होइ न ज्ञान ॥ ११० ।।
३१ सा--भेपमें न ज्ञान नहि ज्ञान वर्तनमें, मंत्रजंत्रगुरू. तंत्रमे न ज्ञानकी कहानी है ॥ ग्रंथमें न ज्ञान नहीं ज्ञान कवि चातुरीमें, वातनिमें ज्ञान नहीं ज्ञान कहा वानी है ॥ ताते भेप गुरुता कवित्त ग्रंथ मंत्र वात इनीते अतीत ज्ञान चेतना निशानी है । ज्ञानहीमें ज्ञान नहीं ज्ञान और ठोर कहूं, जाके घट ज्ञान सोही ज्ञानकी निदानी है ॥ १११॥ __ भेष धरि लोकनिको वंचे सो धरम ठग, गुरू मो कहा। गुरुवाई जाके चाहिये ॥ मंत्र तंत्र साधक कहावे गुणी जादूगीर, पंडित कहावे पंडिताई जामें लहिये ॥ कवित्तकी कलामें प्रवीण सो कहावे कवि, वात कहि जाने सो पवारगीर कहिये ॥ एते सब विषैके भिकारी मायाधारी जीव, इनकों विलोकके दयालरूप रहिये ॥ ११२ ॥
जो दयालका भाव सो; प्रगट ज्ञानको अंग। पै तथापि अनुभौ दशा वरते विगत तरंग ॥११३॥ : दर्शन ज्ञान चरण दशा, करे एक जो कोई॥ स्थिर व्है साधे मोक्षमग; सुधी. अनुभवी सोई॥११४ ॥
३१ सा-कोई ग ज्ञान चरणातममें वैठि ठोर, भयो निरदोस पर वस्तुको न परसे ॥ शुद्धता विचारे ध्यावे शुद्धतासे केलि करे, शुद्धतामें थिर व्हे अमृत धारा वरसे ॥ त्यागि तन कष्ट व्है सपष्ट अष्ट करमको, करि थान भ्रष्ट नष्ट करे और करसे ॥ सोई विकलप विजय अलप मांहि, त्यागि भौ विधान निरवाणं पद दरसे-।। ११५ ॥