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(९२) चौपाई-मृपा मोहकी परणति फैली । ताते करम चेतना मैली ॥ ज्ञान होत हम समझे येती । जीव सदीव भिन्न परसेती ॥ ९७ ॥ जीव अनादि स्वरूप सम, कर्म रहित निरुपाधि ॥ . अविनाशी अशरण सदा, सुखमय सिद्ध समाधि ॥९८॥ चौपई--मैं त्रिकाल करणीसों न्यारा । चिदविलास पद जगत उज्यारा॥ राग विरोध मोह मम नाही । मेरो अवलंबन मुझमाही ॥ १९ ॥ २३ सा--सम्यकवंत कहे अपने गुण, मैं नित राग विराधों रीतो। मैं करतूति करूं निरवंछक, मो ये विपै रस लागत तीतो ॥ शुद्ध स्वचेतनको अनुभौ करि, मैं जग मोह महा भट जीतो ॥ मोक्ष सन्मुख भयो अब.मो कहु, काल अनंत इही विधि बीते॥१०॥ कहे विचक्षण मैं रहूं, सदा ज्ञान रस साचि ।। शुद्धातम अनुभूतिसों, खलित न होहु कदाचि ॥१०१॥ पूर्वकर्मविष तरु भये, उदै भोग फलफूल। मैं इनको नहिं भोगता, सहज होहु निर्मूल ॥ १०२॥ : जो पूर्वकृत कर्मफल, रुचिसे मुंजे नांहि । मगन रहे आठो पहर, शुद्धातम पद मांहि ॥ १०३ ।।
सो बुध कर्मदशा रहित, पावे मोक्ष तुरंत । , मुंजे परम समाधि सुख, आगम काल अनंत ॥ १०४॥
छंद---जो पूरव कृतकर्म, विरख विष फल नहि भुने । जोग जुगति कारिज करत, ममता न प्रयुने । राग विरोध निरोधि, संगः विकलप सब छंडे । शुद्धातम अनुभौ अभ्यास, शिव नाटक मंडे । जो ज्ञानवंत इह मग