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चलत, पूरण है केवल लहे । सो परम अतींद्रिय सुखविर्षे, मगन रूप संतत रहे ॥ १०५ ॥
३१ सा -- निरभै निराकुल निगम वेद निरभेद, जाके पराकाशमें जगत माइयतु है ॥ रूप रस गंध फास पुद्गलको विलास, तासों उदवस जाको जस गाइयतु है | विग्रहसों विरत परिग्रहसों न्यारो सदा, जायें जोग निग्रहको चिन्ह पाइयतु है || सो है ज्ञान परमाण चेतन निधान तांहि, अविनाशी ईश मानी सीस नाइयतु है ॥ १०६॥
३१ सा--जैसे निरभेदरूप निहचै अतीत हुतो, तैसे निरभेद अब भेद कोन कहेगो ॥ दीसे कर्म रहित सहित सुख समाधान, पायो निजथान फिर वाहिर न वहेगो ॥ कबहूं कदाचि अपनो स्वभाव त्यागि करि, राग रस राचिके न पर वस्तु गहेगो || अमलान ज्ञान विद्यमान परगट भयो, याही भांति आगामी अनंत काल रहेगो ॥ १०७ ॥
३१ सा -- जवही ते चेतन विभावसों उलटी आप, समे पाय अपनो स्वभाव ं गहि लीनो है ॥ तबहीते जो जो लेने योग्य सोसो सत्र लीनो, जो जो त्याग योग्य सोसो सव: छांडि दीनो है ॥ लेवेको न रही ठोर त्यागवेकों नाहिं और, बाकी कहां उवयोज कारज नवीनो हैं | संगत्यागि अंगत्यागि, वचन तरंग त्यागि, मन त्यागि बुद्धित्यागि आपा शुद्ध कीनो है ॥ १०८ ॥
शुद्ध ज्ञानके देह नहिं, मुद्रा भेष न कोय |
ताते कारण मोक्षको द्रव्यलिंग नहिं होय ॥ १०९॥