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(९०) . मर्म, वैराग्य विलास धर्म वाको सरवंस है ॥ राग द्वेप मोहकी दशासों। भिन्न रहे याते. सर्वथा त्रिकाल कर्म जालसों विध्वंस है ॥ निरुपाधि आतम समाधिमें विराजे ताते, कहिये प्रगट पूरण परम हंस है ।। ८१ ॥
ज्ञायक भाव जहां तहां, शुद्ध चरणकी चाल । ताते ज्ञान विराग मिलि, शिव साधे. समकाल ।। ८२॥ यथा अंधके कंध परि, चढे पंगु नर कोय । याके हग वाके चरण, होय पथिक मिलि दोय ॥८३ ।। जहां ज्ञान क्रिया मिले, तहां मोक्ष सग सोय । वह जाने पदको मरम, वह पदमें थिर होय ॥ ८४॥ . ज्ञान जीवकी सजगता, कर्म जीवकू भूल। ज्ञान मोक्ष अंकूर है, कर्म जगतको मूल ॥ ८५ ॥ ज्ञान चेतनाके जगे, प्रगटे केवल राम । कर्म चेतनामें बसे, कर्म बंध परिणाम ॥ ८६ ॥ चौपाई-जवलग ज्ञान चेतना भारी । तवलग जीव विकल संसारी ॥ जब घट ज्ञान चेतना जागी । तब समकिती सहज वैरागी ॥ ७ ॥ सिद्ध समान रूप निज जाने । पर संयोग भाव परमाने । शुद्धातमा अनुभौ अभ्यासे । त्रिविधि कर्मकी ममता नासे ॥ ८८ ॥ ज्ञानवंत अपनी कथा, कहे आपसों आप। . मैं मिथ्यात दशाविर्षे, कीने बहुविध पाप ॥ ८९ ॥.
३१ सा--हिरदे हमारे महा मोहकी विकलताई, ताते हम करुणा न क़ीनी जीव घातकी ॥ आप पाप कीने औरनिकों उपदेश दीने हुति