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(८५) + न मरत है ॥ वोलत विचरत न बोले न विचरे कळू, भेखको न भाजन पै
भेखसो धरत है । ऐसो प्रभु चेतन अचेतनकी संगतीसों, उलट पलट नट बाजीसी करत है ॥ ४५ ॥
नट बाजी विकलप दशा, नांही अनुभौ योग। केवल अनुभौ करनको, निर्विकल्प उपयोग ॥ ४६॥
३१ सा-जैसे काहू चतुर सवांरी है मुकत माल, मालाकी क्रियामें नाना भांतिको विग्यान है। क्रियाको विकलप न देखे पहिरन वारो, मोतीनकी शोभाम मगन सुखवान है । तैसे न करे न भुंजे अथवा करेसो भुंजे, ओर करे और भुंने सब नय प्रमान है। यद्यपि तथापि विकलपविधि त्याग योग, नीरविकलप अनुभौ अमृत पान है ॥ ४७ ॥
द्रव्यकर्म कर्ता अलख, यह व्यवहार कहाव । निश्चै जो जैसा दरव, तैसो ताको भाव ॥४८॥
३१ सा-ज्ञानको सहज ज्ञेयाकार रूप परिणमें, यद्यपि तथापि ज्ञान ज्ञानरूप कह्यो है ।। ज्ञेय ज्ञेयरूपसों अनादिहीकी मरयाद, काह वस्तु काहूको स्वभाव नहि गह्यो है ॥ एतेपरि कोउ मिथ्यामति कहे ज्ञेयाकार, प्रतिभासनिसों ज्ञान अशुद्ध व्है रह्यो है ॥ याही दुरखुद्धिसों विकल भयो डोलत है, समुझे न धरम यों भर्म मांहि वह्यो है ॥ ४९ ॥ · चौपाई-सकल वस्तु जगमें असहोई। वस्तु वस्तुसों मिले न कोई ॥ जीव वस्तु जाने जग जेती । सोऊ भिन्न रहे सव सेती ॥५०॥ कर्म करे फल भोगवे, जीव अज्ञानी कोइ।। यह कथनी व्यवहारकी, वस्तु स्वरूप न होइ ॥५१॥