Book Title: Samaysar Natak
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 84
________________ (८३) नवो जीव उपजे पुरातनकी क्षति है । तातै माने करमको करता है और जीव, भोगता है और वाके हिये ऐसी मति है ।। परजाय प्रमाणको सरक्या द्रव्य जाने, ऐसे दुरखुद्धिको अवश्य दुरगति है ॥ ३४ ॥ कहे अनातमकी कथा चहे न आतम शुद्धि । रहे अध्यातमसे विमुख, दुराराध्य दुर्बुद्धि ॥ ३५ ॥ दुर्बुद्धी मिथ्यामती, दुर्गति मिथ्याचाल । गहि एकंत दुर्बुद्धिसे, मुक्त न होई त्रिकाल ॥३६ ॥ ३१ सा-कायासे विचारे प्रीति मायाहीमें हारी जीति, लिये हठ रीति जैसे हारीलको लकरी ॥ चंगुलके जोर जैसे गोह गहि रहे भूमि, त्याही पाय गाडे 4 न छोड़े टेक पकरी ॥ मोहकी मरोरसों भरमको न टोर पावे, धावे चहुं ओर ज्यों वढावे जाल मकरी ॥ ऐसे दुरवुद्धि भूलि झूटके झरोखे झूलि, फूलि फिरे ममता जंजरनीसों जकरी ॥ ३७ ॥ ___ बात सुनि चौकि ऊठे वातहाँसों भौंकि उठे, वातसों नरम होइ वातहीसों अकरी ॥ निंदा करे साधुकी प्रशंसा करे हिंसककी, साता माने प्रभुता असाता माने फकरी ॥ मोक्ष न सुहाइ दोष देखे तहां पैठि जाइ, कालसों डराइ जैसे नाहरसों वकरी ॥ ऐसे दुवुद्धि भूलि झूठसे झरोखे झूलि, फूली फिरे ममता जंजीरनिसो जकरी ।। ३८ ।। ___ कवित्त-केई कहे जीव क्षणभंगुर, केई कहे करम करतार । केई कर्म रहित नित जपहि, नय अनंत नाना दरकार । जे एकांत गहे ते मूरख, पंडित अनेकांत पख धार । जैसे भिन्न भिन्न मुकता गण, गुणसों गहत कहावे हार ॥ ३९॥

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