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(८१) शिष्य कहे प्रभु तुम कह्यो, दुविध कर्मका रूप । द्रव्यकर्म पुद्गलमई, भावकर्म चिद्रूप ॥ १७ ॥ कर्ता द्रव्यजु कर्मको, जीव न होइ त्रिकाल। . अव यह भावित कर्म तुम, कहो:कोनकी चाल ॥१८॥ कर्त्ता याको कोन है, कौन करे फल भोग। के पुद्गल के आतमा, के दुहुको संयोग ॥ १९ ॥ क्रिया एक कर्ता जुगल, यो न जिनागम सांहि । अथवा करणी औरकी, और करे यो नांहि ॥२०॥ करे और फल भोगवे, और बने नहिं एम। जो करता सो भोगता, यहै यथावत जेम ॥ २१ ॥ भावकर्म कर्त्तव्यता, स्वयंसिद्ध नहिं होय । जो जगकी करणी करे, जगवासी जिय सोयः ॥ २२॥ जिय कर्ता जिय भोगता, भावकर्म जियचाल । पुद्गल करे न भोगवे, दुविधा मिथ्याचाल ॥ २३ ॥ ताते भावित कर्मको, करे मिथ्याती जीव । । । सुख दुख आपद् संपदा, मुंजे सहज सीव ॥२४॥
३१ सा-कोइ मूढ विकल एकंत पक्ष गहे कहे, आतमा अकरतार रण परम है ।। तिनसो जु कोउ कहे जीव करता है तासे, फेरि कहे करमकों करता करम है । ऐसे मिथ्यामगन मिथ्याती ब्रह्मघाती जीव, नन्हके हिये अनादि मोहको भरम है ॥ तिनके मिथ्यात्व दूर करवेकू कहे रु, स्यादवाद परमाण आतम धरम हैं ॥२५॥ .