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चौपाई - जीव करम करता नहिं ऐसे । रस भोक्ता स्वभाव नहिं तैसे ॥ मिथ्या मतिसों करता होई । गये अज्ञान अकरता सोई ॥ ३ ॥
३१ सा - निचे निहारत स्वभाव जांहि आतमाको, आतमीक धरम परम परकामना || अतीत अनागत वरतमान काल जाको, केवल स्वरूप गुण लोकालोक भासना | सोई जीव संसार अवस्था मांहि करमको करतासों दीसे लिये भरम उपासना || यहै महा मोहको पसार यहै मिथ्याचार, यह भो विकार यह व्यवहार वासना ॥ ४ ॥
चौपाई -- यथा जीव कर्त्ता न कहावे । तथा भोगता नाम न पावे ॥ है भोगी मिथ्यामति मांहीं । गये मिध्यात्व भोगता नाहीं ॥ ५ ॥
३१ सा--- जगवासी अज्ञानी त्रिकाल परजाय बुद्धि, सोतो विषै भोगनिसा भोगता कहावे है | समकिती जीव जोग भोगसों उदासी ताते सहज अभोगताजु ग्रंथनिमें गायो है ॥ याहि भांति वस्तुकी व्यवस्था अवधारे बूध, परभाव त्यागि अपनो स्वभाव आयो है ॥ निरविकलप निरुपाधि आतम आराधि, साधि जोग जुगति समाधिमें समायो है ॥ ६ ॥
चिनमुद्रा धारी ध्रुव धर्म अधिकारी गुण, रतन भंडारी आप हारी कर्म नरोगको || प्यारो पंडितनको हुस्यारो मोक्ष मारगमें, न्यारो पुद्गलसों उजारो उपयोगको || जाने निज पर तत्त रहे जगमें विरत, गहे न ममत्त -मन वच काय जोगको || ता कारण ज्ञानी ज्ञानावरणादि करमको, करता न होइ भोगता न होइ भोगको ॥ ७ ॥
निर्मिलाप करणी करे, भोग अरुचि घट मांहि । ताते साधक सिद्धसम, कर्ता भुक्ता नांहि ॥ ८ ॥