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'दृष्टिसों भरम भूलि रहे हैं ॥ आसन न खोले मुख वचन न बोले सिर, नायेहू न डोले मानो पाथरके चहे है ॥ देखनके हाउ भव पंथके बढाउ ऐसे, मायाके खटाउ अभिमानी जीव कहे है ॥ ४४ ॥
धीरके धरैय्या भव नीरके तरैय्या भय, भीरके हरैय्या वर वीर ज्यों उमहे हैं ॥ मारके मरैय्या सुविचारके करैय्या सुख, ढारके ढरैय्या गुण लोसों लह लहे हैं ॥ रूपके ऋझैय्या सब नयके समझैय्या सब हीके लघु भैय्या सवके कुबोल सहे हैं ॥ वामके वमैय्या दुख दामके दमैय्या ऐसे, रामके रमैय्या नर ज्ञानी जीव कहे हैं ॥ ४५ ॥
चौपाई-जे समकिती जीव समचेती । तिनकी कथा कहू तुमसेती ॥ ... जहां प्रमाद क्रिया नहिं कोई । निरविकल्प अनुभौ पद सोई ॥४६॥
परिग्रह त्याग जोर थिर तीनो । करम बंध नहिं होय नवीनो ॥ जहां न राग द्वेष -रस मोहे । प्रगट मोक्ष मारग मुख सोहे ॥ ४७ ॥ प्रव बंध उदय नहिं ब्यापे । जहां न भेद पुन्य अरु पापे ॥ . द्रव्य भाव गुण निर्मल धारा । बोध विधान विविध विस्तारा ॥ ४८॥ जिन्हके सहन अवस्था ऐसी । तिन्हके हिरदे दुविधा कैसी ॥ जे मुनि क्षपक श्रेणि चढ़ि धाये । ते केवलि भगवान कहाये ॥ ४९॥ इह विधि जे पूरण भये, अष्टकर्म वन दाहि ।
तिन्हकी महिमा जे लखे, नमे बनारसि ताहि ॥ ५० ॥ - छप्पै छंद-भयो शुद्ध अंकुर, गयो मिथ्यात्व मूल नसि । क्रम क्रम होत उद्योत, सहज निम शुक्ल पक्ष ससि । केवल रूप प्रकाश, मासि