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(७५) ' कहे मेराही शहर है ॥ याहि भांति चेतन अचेतनकी संगतीसों, सांचसो विमुख भयो झूठमें वहर है ॥ २८ ॥ जिन्हके मिथ्यामति नहीं, ज्ञानकला घट मांहि ।
परचे आतम रामसों, ते अपराधी नांहि ॥ २९ ॥ . ३१ सा-जिन्हके धरम ध्यान पावक प्रगट भयो, संसै मोह विभ्रम विरख तीनो बढ़े हैं । जिन्हके चितौनि आगे उदै स्वान भुसि भागे; लागे न करम रज ज्ञान गज चढे हैं। जिन्हके समझकी तरंग अंग आगमसे आगममें निपुण अध्यातममें कढे हैं ॥ तेई परमारथी पुनीत नर आठों याम, राम रस गाढ करे यह पाठ पढे हैं ॥ ३० ॥
जिन्हके चिहुंटी चिमटासी गुण चूनवेकों, कुकथाके सुनिवेकों दोउ कान मढे हैं । जिन्हके सरल चित्त कोमल वचन बोले, सौम्यदृष्टि लिये डोले मोम कैसे गढे हैं। जिन्हके सकति जगी अलख अराधिवकों, परम समाधि साधिवेको मन बढे हैं ।। तेई परमारथ पुनीत नर आठों याम, राम रस गाढ करे यह पाठ पढ़े हैं ॥ ३१ ॥
राम रसिक अरु राम रस, कहन सुननको दोई। जव समाधि परगट भई, तब दुविधा नहिं कोइ ॥३२॥. नंदन वंदन थुति करन, श्रवण चिंतवन जाप। . पठन पठावन उपदिशन, बहुविधि क्रिया कलाप ॥३३॥
शुद्धातम अनुभव जहां, शुभाचार तिहि नांहि ।। · · करम करम मारग विषे, शिव मारग शिव मांहि.॥३४॥. चौपाई-इहि विधि वस्तु व्यवस्था जैसी । कही जिनेंद्र कही मैं तैसी ॥.