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छप्पै छंद ---जीव कर्म संयोग, सहज मिथ्यात्व घर । राग द्वेष परणति प्रभाव, जाने न आप पर । तम मिथ्यात्व मिटि गये, भये समकित उद्योत शशि । राग द्वेप कछु वस्तु नाहि, छिन मांहि गये नशि । अनुभव अभ्यास सुख राशि रमि, भयो निपुण तारण तरण । पूरण प्रकाश निहचल निरखि, वनारसी चंदत चरण ॥ ५९ ॥
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३१ सा— कोउ शिष्य कहे स्वामी राग द्वेष परिणाम, ताको मूल प्रेरक कहहुं तुम कोन है ॥ पुद्गलः करम जोग किंधो इंद्रिनीके भोग, कींधो धन कींधो परिजन कींधो भोंन है | गुरु कहे छहो द्रव्य अपने अपने रूप, सत्रनिको सदा असहाई परिणोंण है ॥ कोउ द्रव्य काहूको न प्रेरक कदाचि ताते, राग द्वेप मोह मृपा मदिरा अचन है ॥ ६१ ॥
कोउ मूरख यों कहे, राग द्वेष परिणाम । पुगलकी जोरावरी, बरते आतम राम ॥ ६१ ॥ ज्यों ज्यों पुल बल करे, धरिधरि कर्मज भेष । राग द्वेपको परिणमन; त्यों त्यों होय विशेष ॥ ६२ ॥ यह विधि जो विपरीत पण, गहे सद्दहे कोय | सो नर राग विरोधसों, कबहूं भिन्न न होय ॥ ६३ ॥ सुगुरु कहे जगमें रहे, पुद्गल संग सदीव |
सहज शुद्ध परिणामको, औसर लहे न जीव ॥ ६४ ॥ ताते चिद्भावन विधें, समरथ चेतन राव ।
राग विरोध मिथ्यातमें, सम्यकूमें शिवभाव ॥ ६५ ॥
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