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भोग संयोग वियोग व्यथा, अवलोकि कहे यह कर्मजु घेरो ॥ है जिन्हकों अनुभौ इह भांति, सदा तिनकों परमारथ नेरो ॥ १६ ॥ जो पुमान परधन हरे, सो अपराधी अज्ञ । -
जो अपने धन व्यवहरे, सो धनति सर्वज्ञ ॥ १७ ॥ परकी संगति जो रचे, बंध बढावे सोय ।
जो निज सत्तामें मगन, सहज मुक्त सो होय ॥ १८ ॥ उपजे बिनसे थिर रहे, यहुतो वस्तु वखान । जो मर्यादा वस्तुकी, सो सत्ता परमान ॥ १९॥
३१ सा -- लोकालोकमान एक सत्ता है आकाश द्रव्य, धर्म द्रव्य एक सत्ता लोक परमीत है | लोक परमान एक सत्ता है अधर्म द्रव्य, कालके अणू असंख्य सत्ता अगणीत हैं | पुगदल शुद्ध परमाणु की अनंत सत्ता जीवकी अनंत सत्ता न्यारी न्यारी थित है ॥ कोउ सत्ता काहुस न मिले एकमेक होय, सवे असहाय यों अनादिहीकी रीत है ॥ २० ॥
ए छह द्रव्य इनहीको हैं जगतजाल, तामें पांच जड़ एक चेतन सुजान है ॥ काहूकी अनंत सत्ता काहूसों न मिले कोइ, एक एक सत्तामें अनंत गुण गान है | एक एक सत्तामें अनंत परजाय फिरे, एकमें अनेक इहि भांति परमाण है || यहै स्यादवाद यह संतनकी मरयाद, यहै सुख पोप यह मोक्षको निदान है ॥ २१ ॥ .
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साधि दधि मंथनमें राधि रस पंथनमें, जहां तहां ग्रंथनमें सत्ताहीको सोर है ॥ ज्ञान भान सत्तामें सुधा निधान सत्ताही में, सत्ताकी दुरनि सांझ सत्ता मुख भोर है | सत्ताको स्वरूप मोख सत्ता भूल यह दोष, सत्ताके