Book Title: Samaysar Natak
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 74
________________ (193) भोग संयोग वियोग व्यथा, अवलोकि कहे यह कर्मजु घेरो ॥ है जिन्हकों अनुभौ इह भांति, सदा तिनकों परमारथ नेरो ॥ १६ ॥ जो पुमान परधन हरे, सो अपराधी अज्ञ । - जो अपने धन व्यवहरे, सो धनति सर्वज्ञ ॥ १७ ॥ परकी संगति जो रचे, बंध बढावे सोय । जो निज सत्तामें मगन, सहज मुक्त सो होय ॥ १८ ॥ उपजे बिनसे थिर रहे, यहुतो वस्तु वखान । जो मर्यादा वस्तुकी, सो सत्ता परमान ॥ १९॥ ३१ सा -- लोकालोकमान एक सत्ता है आकाश द्रव्य, धर्म द्रव्य एक सत्ता लोक परमीत है | लोक परमान एक सत्ता है अधर्म द्रव्य, कालके अणू असंख्य सत्ता अगणीत हैं | पुगदल शुद्ध परमाणु की अनंत सत्ता जीवकी अनंत सत्ता न्यारी न्यारी थित है ॥ कोउ सत्ता काहुस न मिले एकमेक होय, सवे असहाय यों अनादिहीकी रीत है ॥ २० ॥ ए छह द्रव्य इनहीको हैं जगतजाल, तामें पांच जड़ एक चेतन सुजान है ॥ काहूकी अनंत सत्ता काहूसों न मिले कोइ, एक एक सत्तामें अनंत गुण गान है | एक एक सत्तामें अनंत परजाय फिरे, एकमें अनेक इहि भांति परमाण है || यहै स्यादवाद यह संतनकी मरयाद, यहै सुख पोप यह मोक्षको निदान है ॥ २१ ॥ . . साधि दधि मंथनमें राधि रस पंथनमें, जहां तहां ग्रंथनमें सत्ताहीको सोर है ॥ ज्ञान भान सत्तामें सुधा निधान सत्ताही में, सत्ताकी दुरनि सांझ सत्ता मुख भोर है | सत्ताको स्वरूप मोख सत्ता भूल यह दोष, सत्ताके

Loading...

Page Navigation
1 ... 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134