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(७२) २३ साज्यों कलधौत सुनारकी संगति, भूपण नाम कहे सत्र कोई.॥ कंचनता न मिटी तिहि हेतु, वहे फिरि औटिके कंचन होई ॥ त्यों यह जीव अजीव संयोग, भयो बहुरूप हुवो नहि दोई ॥ चेतनता न गई कवहूं तिहि, कारण ब्रह्म कहावत सोई ।। ११ ॥. देख सखी यह ब्रह्म विराजत, याकी दशा सब याहिको सोहै ।। . एकमें एक अनेक अनेकमें, द्वंद्व लिये दुविधा महि दो है ।। आप संभारि लखे अपनो पद, आप विसारिके आपहि मोहे ॥ . व्यापकरूप यहै घट अंतर, ज्ञानमें कोन अज्ञानमें को है ।। १२ ।। ज्यों नट एक धरे बहु भेप, कला प्रगटे जब कौतुक देखे ॥ . आप लखे अपनी करतूति, वहै नट भिन्न विलोकत पेखे ॥
त्यों घटमें नट चेतन राव, विभाव दशा धरि रूप विसेखे ॥ .. खोलि सुदृष्टि लखे अपनो पद, दुंद विचार दशा नहि लेखे ॥ १३ ॥ __ छंद अंडिल्लजाके चेतन भाव चिदातम सोइ है । और. भाव जो' धरे सो और कोई है । जो चिन मंडित भाव उपादे जानने । त्याग योग्य परभाव पराये मानने ॥ १४ ॥ ". ३१ सा-निन्हके सुमति. नागी भोगसो भये · विरागी, परसंग त्यागि ने पुरुष त्रिभुवनमें ॥ रागादिक भावनिसों जिन्हकी रहनि न्यारी; कबहू मगन व्है न रहे धाम धनमें ॥ जे सदैव आपकों विचारे सरवांग शुद्ध, जिन्हके विकलता न व्यापे कछु मनमें ॥ तेई मोक्ष मारगकें . साधक कहावे जीव, भावे रहो मंदिरमें भावे रहो बनमें ॥ १५ ॥ :
२३ सा-चेतन मंडित अंग अखंडित, शुद्ध पवित्र पदारथ मेरो ॥ राग विरोध विमोह दशा, समझे भ्रम नाटक पुद्गल केरो ॥. . .