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(८०) कवित्त-जो हिय अंध विकल मिथ्यात धर, मृपा सकल विकल्प उपनावत ॥
गहि एकांत पक्ष आतमको, करता मानि अधोमुख धावत ॥ . त्यो जिनमती द्रव्य चारित्र कर, करनी करि करतार कहावत ॥ .
वंछित मुक्ति तथापि मूढमति, विन समकित भव पार न पावत ॥ ९ ॥ • चौपाई-चेतन अंक जीव लखि लीना । पुद्गल कर्म अचेतन चीना। ___ वासी एक खेतके दोऊ । जदपि तथापि मिले न कोऊ ॥ १० ॥ दोहा-निजनिज भाव क्रिया सहित, व्यापक व्याप्य न कोय।
कर्ता पुद्गल कर्मका, जीव कहांसे होय ॥ ११ ॥ ३१ सा--जीव अर पुद्गल करम रहे एक खेत, यद्यपि तथापि सत्ता न्यारी न्यारी कही है ॥ लक्षण स्वरूप गुण परजै प्रकृति भेद, दुहूमें अनादि होकी दुविधा व्है रही है । एते पर भिन्नता न भासे जीव करमकी, जोलों मिथ्याभाव तालों आंधी वायू वही है | ज्ञानके उद्योत होत ऐसी सूधी दृष्टि भई जीव कर्म पिंडको अकरतार सही है ॥ १२ ॥ . एक वस्तु जैसे जु है, तासें मिले न आन ।
जीव अकर्ता कर्मको, यह अनुभो परमान ॥ १२॥ चौपाई-जो दुरमती विकल अज्ञानी । जिन्ह स्वरीत पर रीत न जानी। माया मगन भरमके भरता । ते जिय भाव करमके करता ॥ १४ ॥ जे मिथ्यामति तिमिरसों, लखे न जीव अजीव । . तेई भावित कर्मको, कर्ता होय सदीव ॥ १५॥ जे अशुद्ध परणति धरे, करे अहंपर मान। .. ते अशुद्ध परिणामके, कर्ता होय अजान ॥ १६ ॥