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(४८ नेम विना न लहे निहचे पद, प्रेम विना रस रीति न बूझे ॥ ध्यान विना थंभे मनकी गति, ज्ञान विना शिवपंथ न सूझे ॥२३॥ ज्ञान उदै जिन्हके घट अंतर, ज्योति जगी मति होत न मैली ।। वाहिन दृष्टि मिटी जिन्हके हिय; आतम ध्यानकला विधि फैली ॥ जे जड़ चेतन भिन्न लखेसों, विवेक लिये परखे गुण थैली ॥ ते जगमें परमारथ जानि, गहे रुचि मानि अध्यातम सैली ।। २४ .
दोहा. . बहुविधि क्रिया कलापसों, शिवपद लहे न कोय । ज्ञानकला परकाशते, सहज मोक्षपद होय ॥२५॥ ज्ञानकला घटघट बसे, योग युक्तिके पार । निजनिज कला उदोत करि, मुक्त होई संसार ॥ २६ ॥ . . , अनुभवते मोक्ष होय है ॥ कुंडलिया छंद. . अनुभव चिंतामणि रतन, जाके हिय परकास ॥ सो पुनीत शिवपद लहे, दुहे चतुर्गति वास ॥ दहे चतुर्गतिवास, आस धरि क्रिया न मंडे ।. . नूतन बंध निरोधि, पूर्वकृत कर्म विहंडे ॥ ताके न गिणु विकार, न गिणु बहु भार न गिणु भव ॥ जाके हिरदे मांहि, रतन चिंतामणि अनुभव॥२७॥
अनुभवी ज्ञानीका सामर्थ्य कहे है ॥ सवैया ३१ सा. जिन्हके हियेमें सत्य सूरज उद्योत भयो, फैली मति किरण मिथ्यात तम नष्ट है ॥ जिन्हके सुदृष्टीमें न परचे विषमतासों समतासों प्रीति ममतासों लष्ट पुष्ट है । जिन्हके कटाक्षमें सहज मोक्षपथ सधे, सधन निरोध जाकेतनको न कष्ट है ॥ तिन्हके करमकी किल्लोल यह है समाधी, डोले यह · जोगा• सन वोले यह मष्ट हैं ॥ २८॥ . .