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सवैया ३१ सा॥ रविके उदोत अस्त होत दिन दिन प्रति, अंजुलीके जीवन ज्यों जीवन घटतं है ॥ कालके असत छिन छिन होत छिन तन, आरेके चलत मानो काठ ज्यों कटत है ।। एतेपरि मूरख न खोने परमारथको, स्वारथके हेतु भ्रम भारत ठटत है ॥ लग्यो फिरे लोकनिसों पग्योपरे जोगनिसों विषैरस भोगनिसों नेक न हटत है ॥ २५ ॥ मृगजलका अर अंधका दृष्टांत देके संसारीमूटका भ्रम
दिखावे है ।। ३१ सा. जैसे मृग मत्त वृषादित्यकी तपति माहि, तृषावंत भूषाजल कारण अटत है। तैसे भववासी मायाहीसों हित मानिमानि, अनि २ भ्रम भूमि नाटक नटत है ॥ आगेको ढुकत धाइ पाछे वछारा चवाई, जैसे द्रगहीन नर जेवरी वटत है ॥ तैसे मूढ चेतन सुकृत करतूति करे, रोवत हसत फल खोवत खटत हैं ॥ २६ ॥
मूटजीव कर्मबंधसे कैसे निकसे नहीं सो लोटण कबूतरका .
. . दृष्टांत देके कहे है ।। ३१ सा. . . . लिये दृढ पेच फिरे लोटण कबूतरसों, उलटो अनादिको न कहूं सुलटतहै ॥ जाको फल दुःख ताहि सातासों कहत सुख, सहत लपेटि असि धारासी चटत है। ऐसे मूढ जन निज संपत्ति न लखे कोहि, योंही मेरी २ निशि वासर रटत है। याहि ममतासों परमारथ विनसि नाइ, कांजिको स्परस पाय दृध ज्यों फटत है ॥ २७ ॥