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- दोहा.
यह जगवासी यह जगत्, इनसों तोहि न काज। . तेरे घटमें जगबसे, तामें तेरो राज ॥४४॥
जे पिंड ते ब्रह्मांड ये बात साची है। सवैया ३१ सा. याहि नर पिंडमें विराजे त्रिभुवन थिति, याहीमें त्रिविधि परिणामरूप सृष्टि है ॥ याहीमें करमकी उपाधि दुःख दावानल, याहीमें समाधि सुखवारिदकी वृष्टि है ॥ याहीमें करतार करतूति यामें विभूति, यामें भोग याहीमें वियोग यामें घृष्टि है ॥ याहीमें विलास सर्व गर्मित गुपतरूप ताहिको प्रगट जाके अंतर सुदृष्टि है ॥ ४५ ॥
आत्माके विलास जाननेका उपदेश गुरु करे है । सवैया २३ सा. रे रुचिवंत पचारि कहे गुरु, तूं अपनो पद वूझत नाहीं ॥ खोज हिये निज चेतन लक्षण, है निजम निज गूझत नाहीं ॥ शुद्ध स्वच्छंद सदा अति उज्जल, मायाके फंद अक्रत नाहीं॥ तेरो स्वरूप न दुंदकि दोहिमें, तोहिमें तोहि है सूझत नाहीं ॥ ४६ ॥
आत्मस्वरूपकी अलख ज्ञानसे होय है। सवैया २३ सा. केइ उदास- रहे प्रभु कारण, केइ कहीं उठि जांहि कहींके ॥ केइ प्रणाम कर घडि मूरति, केइ पहार चढे चढि छीके ॥ केइ कहे असमानके ऊपरि, केइ कहे प्रभु हेठ जमींके ॥ मेरो धनी नहिं दूर दिशान्तर, मोहिमें है मोहि सूझत नीके ॥ ४७॥
मनका चंचलपणा बतावे है । सवैया ३१ सा. . छिनमें प्रवीण छिनहींमें मायासों मलीन, झिनकमें दीन छिनमाहि जैसो * शक है ।। लिये दोर धूप छिन छिनमें अनंतरूप, कोलाहल ठानत मथानकोसो तक है ॥ नट कोसो थार कीधों हार है रहाट कोसो, नदीकोसो