Book Title: Samaysar Natak
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
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ठौर ठौर रकतके कुंड केसनीके झुंड, हाइनिसों भरि जैसे थरि है चुरेलकी ॥ थोरेसे धक्काके लगे ऐसे फटनाय मानो, कागदकी पूरी कीवो त्रादर है चैलकी । सूचे भ्रम वानि ठानि मुनिसों पहिचानि, करे सुख हानि अरु खानी वद फैलकी ॥ ऐसी देह याहीके सनेह या संगतिला, व्हेरहे हमारी मति कोल्हू कैसे वैलकी ॥ ४० ॥
संसारी जीवकी गति कोल्डके वैल समान है । सबैया ३१ सा.
पाठी बांधी लोचनिसों संचुके दबोचनीसों, कोचनाके सोचमा निवदे खेद तनको । धाइवोही धंधा अरु कंधा माहि लग्यो नोत, वार वार आर सहे कायर व्है मनको । भूख सहे प्यास सहे दुर्जनको त्रास सहे, पिरता न कहे न उसास लहे छिनको. ॥ पराधीन घूमे जैसे कोल्हूका कमेरा बैल, तैसाही स्वभाव भैया जगवासी जनको ।। ४१॥ ___ जगतमें डोले जगवासी नररूप धरि, प्रेत कैसे दीप कांघो रेत कैसे Jहे है । दीसे पट भूषण आडंबरसों नीके फोरे, फिके छिन माहि मांझ अंबर ज्यों सूहे है ॥ मोहके अनल दगे मायाकी मनीसों पगे, डाभकि अणीसों लगै उस कैसे फूहे हैं ॥ धमकी बूझि नाहि उरझे भरम माहि, नाचि नाचि मरिनाहि मरी कैसे चूहे है ॥ ४२ ॥ __ जगवासी जीवके मोहका स्वरूप कहे है । सवैया ३१ सा.
जासू तूं कहत यह संपदा हमारी सो तो, साधुनि ये डारी ऐसे . जैसे नाक सिनकी ।। तातूं तूं कहत हम पुन्य जोग पाइ सो तो, नरककी साई. है वढाई डेढ दिनकी । घेरा मांहि पो तूं विचारे सुख आखिनिको माखिनके चूटत मिठाई जैसे भिनकी ॥ एतेपरि होई न उदासी जगवासी जीव, जगमें असाता है न साता एक छिनकी ॥ ४३ । ।

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