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व्यवहारसों मुक्त हैं | निरविकलप निरुपाधि आतम समाधि, साधि जे सुगुण मोक्ष पंथकों दुकत है ॥ तेइ जीव परम दशामें थिर रूप हैके, धरममें धुके न करमसो रुकत है ॥ ३१ ॥ -
शिष्य कर्मबंधका कारण पूछे है ॥ कवित्त.
जे जे मोह कर्मकी परणति, बंध निदान कही तुम सव्त्र ॥ संतत भिन्न शुद्ध चेतनसों, तिन्हको मूल हेतू कहु अव्व ॥ के यह सहज जीवको कौतुक, कै निमित्त है पुद्गल द्रव्य || सीस नवाइ शिष्य इम पूछत, क सुगुरु उत्तम सुनि भव्व ॥ ३२ ॥ .
कर्मबंधका कारण सद्गुरु कहे है ॥ सवैया ३१ सा.
जैसे नाना वरण पुरी बनाइ दीने हेठ, उज्जल विमल मणि सूरज करांति है ॥ उज्जलता भासे जब वस्तुको विचार कीने, पुरीकी झलकसों वरण भांति भांति है ॥ तैसे जीव दरवको पुद्गल निमित्तरूप, ताकी ममतासों मोह मदिराकी भांति है॥ भेदज्ञान दृष्टिसों स्वभाव साधि लीजे तहां, साची शुद्ध चेतना अवाचि सुखशांति है ॥ ३३ ॥ "
वस्तुके संगतसे स्वभावमें फेर पड़े है ॥ सवैया ३१ सा.
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. जैसे महि मंडलमें नदीको प्रवाह एक, ताहीमें अनेक भांति 'नीरकी ढरणि है | पाथरको ओर तहां धारकी मरोर होत, कांकरकी खानि तहां झागकी झरनि है | पौनकी झकोर तहां चंचल तरंग उंठे, भूमिकी निचान तहां भोरकी परनि है ॥ ऐसे एक आतमा अनंत रस पुदगल, दुहुकेसंयोगमें विभावकी भरनि है ॥ ३४ ॥
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