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* ज्ञानके प्रमाण ठीक आनिये ॥ वाहिको विचार करि वाहीमें मगन हुने, वाको पद साधिवेकों ऐसी विधि ठानिये ॥ १४ ॥
आत्मानुभवते कर्मकाबंध नहि होयं है॥ चौपाई. इहि विधि वस्तु व्यवस्था जाने । रागादिक निजरूप न माने ॥
तातें ज्ञानवंत जग माहीं । करम बंधको करता नाहीं ॥ १५ ॥ अनुभवी जो भेदज्ञानी है तिनकी क्रिया कहे है ॥ सवैया ३१ सा.
ज्ञानी भेदज्ञानसों विलक्ष पुगदल कर्म, आतमीक धर्मसों निरालो करि मानतो ॥ ताको मूल कारण अशुद्ध राग भाव ताके, नासिवकों शुद्ध अनुभौ अभ्यास ठानतो ॥ याही अनुक्रम पररूप भिन्न बंध त्यागि, आपमांहि आपनो स्वभाव गहि आनतो ॥ साधि शिवचाल निरवंध होत तिहू काल, केवल विलोक पाई लोका लोक जानतो ॥ १६ ॥
अनुभवी (भेदज्ञानी ) का पराक्रम अर वैभव कहे है । सवैया ३१ सा. ___ जैसे कोउ मनुष्य अजान महा वलवान, खोदि मूल वृक्षको उखारे गहि वाहुसौ ॥ तैसे मतिमान द्रव्यकर्म भावकर्म त्यागि, व्है रहे अतीत मति ज्ञानकी दशाहुसों ।। याहि क्रिया अनुसार मिटे मोह अंधकार, जगे जोति केवल प्रधान सविताहु सों ॥ चूके न शकतिसों लुके न पुगदल माहि, धुके मोक्ष थकलों रुके न फिरि काहुसों ॥ १७ ॥
दोहा. बंधद्वार पूरण भयो, जो दुख दोष निदान ।' ... अब वरणूं संक्षेपसे, मोक्षद्वार सुखथान ॥ ५८॥
॥ इति अष्टम बंधद्वार समाप्त भयो ॥ ८॥