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भोरांके कुंभार कोसो चक्र है | ऐसो मन भ्रामक थिर आज कैसे होई औरहीको चंचल अनादिहीको वक्र है ॥ ४९ ॥
मनका चंचलपणा स्थिर कैसे होयगा । सवैया ३१ सा. धायो सदा काल पै न पायो कहुं सांचो सुख, रूपसों विमुख दुख कूपवास बसा है || घरमको घाती अधरमको संघाती महा, कुरापाति नाकी संनिपात कीसी दया है । मायाकों झपटि गहे कायासों लपटि रहे, भल्यो भ्रम भीरमें वहीर कोसो ससा है | ऐसो मन चंचल पताका कोसो अंचल सु, ज्ञानके नगेसे निरवाण पंथ धसा है ॥ ५० ॥
दोहा. जो मन विषय कषायमें, बरते चंचल सोइ । जो मन ध्यान विचारसों, रुकेसु अविचल होइ ॥ ५१ ॥ ताते विषय कषायसों, फेरि सुमनकी वाणि । शुद्धतम अनुभौ विधें, कीजे अविचल आणि ॥ ५२ ॥ आत्मानुभवमें क्या विचार करना सो कहे है ॥ सवैया ३१ सा.
अलख अमूरति अरूपी अविनाशी अज, निराधार निगम निरंजन निरंध है | नानारूप भेष घरे भेषको न लेश घरे, चेतन प्रदेश घरे चैतन्यका खंध है | मोह घरे मोहीसो विराजे तामें तोहीसों न मोहीसो तोहीसों न रागी निरबंध है | ऐसो चिदानंद याहि घटमें निकट तेरे, ताहि तूं विचार मन और सब धंध है ॥ ५३ ॥
आत्मानुभव करनेके विधिका क्रम कहे है ॥
सवैया ३१ सा प्रथम सुदृष्टिसों शरीररूप कीजे भिन्न, तामें और सूक्ष्म शरीर भिन्न मानिये | अष्ट कर्म भावकी उपाधि सोई कीने भिन्न, ताहूमें सुबुद्धिको विलास भिन्न जानिये ॥ तामें प्रभु चेतन विराजत अखंडरूप, वहे श्रुत