________________
( ५७ )
कर्मबंधका कारण अशुद्ध उपयोग है ॥ सवैया ३१ सा. कर्मजाल वर्गणाको वास लोकाकाश मांहि, मन वच कायको निवास गति आयुम || वेतन अचेतनकी हिंसा वसे पुद्गलमें विषै भाग वरते उदैके उरझाय ॥ रागादिक शुद्धता अशुद्धता है अलखकी, यह उपादान हेतु वंधके त्रढावमं ॥ ग्राहीते विचक्षण अबंध को तिहूं काल, राग द्वेप मोहनांहि सम्यक् स्वभावमें ॥ ४ ॥
सवैया ३१ सा.
कर्मजाल जोग हिंसा भोगसों न बंधे है, तथापि ज्ञाता उद्यमी वखान्यो जिन वनमें || ज्ञानदृष्टि देत विषै भोगनिसां हेत दोऊ, क्रिया एक खेत यतो वने नांहि जैनमें ॥ उदै वल उद्यम है पै फलको न चहै, निरदै दशा न होइ हिरदेके नैनमें || आलस निरुद्यमकी भूमिका मिथ्यांत मांहि, जहां न संभारे जीव मोह नींद सैनमें ॥ ५ ॥ कर्म उदय
का वर्णन कहे है | दोहा. जब जाकों जैसे उदै, तब सो है तिहि थान । शक्ति मरोरी जीवकी, उदै महा बलवान ॥ ६ ॥
हाथीका अर मच्छका दृष्टांत देके कर्मका उदैवल कहे हैं ॥ जैसे गजराज पयो कदमके कुंडवीच, उद्दम अरूढे पैन छूटे दुःख ददसों | जैसे लोह कंटककी कोरसों उरझ्यो मीन, चेतन असाता लहे साता रहे संदसों | जैसे महाताप सिरवाहिसो गरास्यो नर, तके निज काम उठिशके न सु छंदसों ॥ तैसे ज्ञानवंत सव जाने न बसाय कछू, वंध्यो फिरे पूरव करम फल फंदसों ॥ ७ ॥